रविवार, 28 सितंबर 2014

"मुझे यकीन होता है,कि यहाँ किसी पत्थर में चमकता हीरा नहीं है।" .....

कल दोपहर(26-09-2014) बीएचयू के राधाकृष्णनन सभागार मे एक भव्य कार्यक्रम का आयजन किया गया।सभागार के द्वार की दीवारों पर लगे मुक्तिबोध जी की कविता-पोस्टर और पुस्तक-प्रदर्शन देखकर इस कार्यक्रम की भव्यता का अंदाज़ा लग गया था।कविता-पोस्टर में,मुक्तिबोध जी एक कविता देखी-

" मुझे भ्रम होता है,कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है।" बेहद पसंद आई ये कविता।
लेकिन जब पूरे कार्यक्रम के बाद जब बाहर निकलना हुआ तो यूँ लगा कि मानो इस कविता की पंक्तियाँ पूरी तरह उल्ट कर -"मुझे यकीन होता है,कि यहाँ किसी पत्थर में चमकता हीरा नहीं है।" बन गई हो।

सभागार के बाहर दीवारों पर जहाँ हर तरफ कविता-पोस्टर था तो वहीँ दूसरी ओर पुस्तक-प्रदर्शनी।पुस्तक-प्रदर्शनी का काम दो छात्राएं देख रहीं थी,जो हिंदी विभाग की थी और जहाँ तक मेरी जानकारी है उनमें से एक संयोजक महोदय जी की शोध-छात्रा थी।जिन्हें कबीर से उत्तर-कबीर तक वाले कार्यक्रम में भी पुस्तक-प्रदर्शनी में पुस्तक की दुकान पर देखा था।इसके बाद,पूरे कार्यक्रम में मंच पर बैठे अध्यक्ष-मंडल में मेरी निगाहें किसी महिला-कवियत्री को खोजती रहीं। लेकिन पूरे कार्यक्रम में उनका नामों-निशान तक नहीं मिला। अब बात आयी,युवतम कवि की,जिनमें कुल पांच कवियों ने कविता-पाठ किया।इनमें से मात्र दो छात्राएं(एम.ए द्वितीय वर्ष) की  थी।
इन सबके बाद दिमाग में आये इन सवालों ने कविता की उस पंक्ति को उल्ट दिया :-
*हमेशा स्त्री-विमर्श और स्त्री से जुड़े हर मुद्दे पर खुद को प्रगतिशील बताने वाले हमेशा लोगों को सिमोन की किताबें पढ़ने की सलाह देने वाले बुद्धिजीवी ऐसी गलती कैसे कर सकते है?
*बनारस से दिल्ली तक के सफ़र में,क्या इन्हें एक भी योग्य महिला-कवियत्री नहीं मिली जो इनके अध्यक्ष-मंडल में शामिल होने हो?
*बाज़ार और पूंजीवाद पर हमेशा बड़ी-बड़ी बात करने वाले क्यों हर बार उसी बाज़ार के नियमों पर चलते है?
*क्यों वे दुकान पर पुस्तक-बेचने के लिए हर बार लड़कियों को ही चयनित करते है?
*क्या उत्तर कबीर के युवतम-कवियों में बुद्धिजीवियों का विभाग मात्र दो युवा-महिला कवित्रियों को तलाश पाया?
*क्या पुस्तक-प्रदर्शनी की दुकान पर बैठी छात्राओं ने कभी कोई कविता या कहानी लिखी नहीं होगी? क्या इनपर पारखियों की नज़र नहीं पड़ी या जानबुझ कर नजरअंदाज़ कर दिया गया?
विभाग के एक प्रगतिशील और बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा जानेअनजाने में इतनी बड़ी भूल करना,समाज में गलत संदेश देता है।इन सभी बिन्दुओं पर जल्द-से-जल्द विचार कर प्रयोग में लाने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो की बहुत देर हो जाए और इन अभी उपमाओं के आगे 'तथाकथित' की उपमा अपना नाता जोड़ ले।
यूँ तो सवाल बहुत है लेकिन प्रचार के बाज़ार में वाह!वाह! की तेज़ आवाज़ वाले डीजे में क्या ये बात सही कानों तक पहुँच पाएगी? ये नहीं  पता...पर आवाज़ पहुचाने की कोशिश हमेशा जारी रहेगी। 

      आखिरकर ये कोशिश कुछ रंग लायी और मेरे प्रश्न सही कानों तक पहुँचे। जहाँ सही लोगों ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात रखी और सीधा निशाना मुझ पर साधा। प्रतिक्रिया सफाई, प्रश्नों, मतों और सलाहों में लिपटे आरोपों से पूर्ण था।

* पहली सफाई, अध्यक्ष-मंडल में महिलाओं की उपस्तिथि को लेकर थी। जिसमें,कहा गया कि महिला प्रोफेसरों ने नवरात्र का व्रत रखा था,इसलिए वे आमंत्रित करने के बाद भी नहीं आ सकी।            

जिस दिन ये कार्यक्रम हुआ वो नवरात्र का दूसरा दिन था और सिर्फ वे लोग ही नवरात्र के दूसरे दिन व्रत रखते जिन्हें पुरे नौ दिन तक व्रत करना होता है। तो क्या बनारस से लेकर दिल्ली तक की सभी हिन्दी-साहित्य से जुडी महिलाएं नवरात्र के नौ दिन तक व्रत रहती है। ये तर्क कम बहाना ज्यादा नजर आता है। खैर,विभाग के युवतम कवियों में मात्र दो छात्राओं की उपस्तिथि के बारे में क्या कहना चाहेंगे आप सब लोग? 

*  दूसरा प्रश्न,मेरे साहित्य-ज्ञान पर किया गया।

अब  इन सबका साहित्य-ज्ञान से क्या लेना-देना? मैंने मुक्तिबोध जी पर या किसी काव्य-पाठ करने वाली की गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं किया। और यदि इस बात पर माननीय बुद्धिजीवी इतना ज़ोर दे ही रहे तो मेरा प्रश्न ये है कि आपके पास तो मुझसे कई गुना ज्यादा साहित्य-ज्ञान है और कहा जाता है कि साहित्य आपको संवेदनशील बनाता है और आपलोगों इतनी असम्वेदनशीलता के साथ इतना बड़ा कार्यक्रम करवाना, कहीं ना कहीं आपकी गुणवत्ता को प्रश्नचिन्हित करता है।

* तीसरी सलाह मुझे पत्रकारिता के सिद्धांत को लेकर दी गयी। जिसमें कहा गया कि बिना छान बीन किये हमने कैसे ये प्रश्न खड़े कर दिए, इससे पता चलता है कि मुझे पत्रकारिता के सिद्धांत की समझ नहीं है।

साहब! सबसे पहले आपको बता दूँ कि हमने कोई फैसला नहीं सुनाया और ना ही किसी खबर को गलत तरीके से प्रस्तुत किया। पुरे कार्यक्रम में खुद मौजूद होने के बाद मैंने अपने प्रश्नों को सामने रखा है। जो कि पत्रकारिता के सिद्धांत के बिलकुल अनुकूल है। और जहाँ तक रही बात छानबीन की तो आपको बता दूँ कि इस कार्यक्रम के आयोजक महोदय से मेरी जान पहचान उतनी ही है जितनी की आप सभी की और इसी साल अप्रैल में वे मेरे एक कार्यक्रम में वक्ता भी थे और इस कार्यक्रम का पूरा आयोजन उनके निर्देशन में हुआ, जो उनके व्यक्तिव के बिलकुल विपरीत लगा। महोदय! जब कोई फिल्म थिएटर में लगती है जिनके कुछ दृश्य दर्शकों को नहीं भाते तो एक आम आदमी से लेकर मीडिया तक फिल्म-निर्माताओं से प्रश्न करती है। और तथ्यों से साथ इन प्रश्नों का जवाब देना उनकी जिम्मेदारी होती है। खुद को हमेशा प्रगतिशील और बुद्धिजीवी बताने वाले कार्यक्रम के संयोजक महोदय जैसे सम्मानित लोग ऐसी गलती  इतने बड़े मंच पर करे तो समाज में इसका क्या संदेश जाएगा? हमें इस बात पर गौर करना चाहिए क्यूंकि इस तरह की चीज़े एक इंसान को ही नहीं पुरे संस्थान और शिक्षा-प्रणाली को कटघरे में खड़ा कर देती है।             

* चौथा मत मीडिया को लेकर दिया माननीय लोगों के अप्रत्यक्ष प्रत्याशी ने दिया। उनका कहना था कि आज मीडिया की हालत देखी जा सकती है कि वे लोग कितनी असम्वेदनशीलता के साथ काम कर रहे है और आप ( मै ) भी उसी सिद्धांत पर काम कर रही है ।           

सज्जन से कहना चाहूँगी कि उन्होंने एकदम सटीक बात कही कि मीडिया सम्वेदनहीन होकर काम कर रहा है। जिसका उदाहरण है कार्यक्रम के दूसरे दिन का अखबार जहाँ हर तरफ इस कार्यक्रम की वाहवाही ही भरी थी। उनकी रिपोर्ट में दूर-दूर तक मेरे पूछे एक भी प्रश्न का एक अंश तक नहीं था।                            

 फेसबुक पर इन लम्बी बहसों से एक और बात सामने आयी कि अगर वास्तव में इन दी हुई सभी सफाईयों में एक प्रतिशत भी सच्चाई होती तो कमेंटकर्ताओं में कम-से-कम एक महिला या कार्यक्रम में उपस्तिथ किसी छात्रा का भी नाम शुमार होता।।।

इस पूरी बहस का दायरा कुछ प्रश्नों,मतों,आरोपों और सलाहों में सिमट कर रह गया। जो बेहद दुखद था। 

स्वाती सिंह


मंगलवार, 23 सितंबर 2014

'तमाशा खत्म मियां अब तो मुखौटा उतार दो!'


पुराने समय से,मुखौटे का प्रयोग अलग-अलग समारोहों या यूँ कहे कि मनोरंजन के लिए किया जाता है। अक्सर नाटक व तमाशा दिखाने के लिए लोग इन मुखौटे के माध्यम से किसी भी पात्र को बड़ी सरलता से दिखाया जाता। क्या शेर,क्या भेड़िया,क्या इंसान और क्या भगवान इस मुखौटे की मदद से कलाकार बड़ी आसानी से लोगों को अपने नाटक व तमाशे की दुनिया में शामिल कर लेते है। लेकिन जैसे-जैसे हमारी सभ्यता विकास की ओर बढ़ने लगी और मनोरंजन के कई सारे साधन आए,वैसे-वैसे मुखौटों का इस्तेमाल कम होता चला गया।
           यूँ  तो अब नाटक व तमाशे से मुखौटों की झलकी कम देखने को मिल रही है,लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्सान के व्यक्तित्व में इन मुखौटों की झलकी खूब देखने को मिल जाती है। इंसानी व्यक्तित्व में मुखौटा,जिसे इंसान का दोहरा चरित्र भी कहते है। वैसे तो बाज़ार से मुखौटे कम हो रहे है ,लेकिन इंसानों में बड़ी तेज़ी से इनका बाज़ार बढ़ रहा है। दोहरे चरित्र वाले लोगों के मुखौटों को देखा नहीं जा सकता है और कभी ना दिखने वाले इंसानी मुखौटे का इस्तेमाल लोग कभी किसी के मनोरंजन या किसी के चहेरे पर मुस्कान लाने के लिए नहीं करते।बल्कि इसका इस्तेमाल किया जाता है,एक झूठी शान बना कर दूसरों की जिंदगी से खिलवाड़ करने के लिए और मानवता को शर्मसार करने की हर हद पार करने के लिए। इसलिए इन मुखौटों को दुनिया का 'सबसे खतरनाक मुखौटा' कहना गलत नहीं होगा।
         आज के समय में ऐसी मुखौटे वाली ज़िन्दगी जीने वाले लोगों की तादाद बढ़ रही है। ये हमेशा दोहरा जीवन जीते है, एक जीवन, वो जिसमें वो समाज के एक विशेष वर्ग में अपनी चमचमाती छवि बनाते है और दूसरा वो जहाँ वे इस चमक के निचले अंधेरों में अपनी काली करतूतों को अंजाम देते है। लिंगभेद से परे, या यूँ कहें कि क्या लड़का?क्या लड़की? सभी ऐसी ज़िन्दगी जीने में एक रोमांच का आनंद ले रहे है। इसका चलन ज्यादातर उन वर्गों में देखने को मिल रहा है जो विकास के मझदार में है,यानी कि जो ना तो पूरी तरह आधुनिक है और ना पूरी तरह सांस्कृतिक होते है। जैसे कि वे लोग जिन्होंने किसी राष्ट्रीय-स्तर की परीक्षा पास करके किसी अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला तो ले लिया है, लेकिन अभी किसी मुकाम पर नहीं पहुँच पाए है। बस इन दोनों बातों के बीच में ये अपने दोहरे जीवन का प्रभाव तेज़ करते है और अपने खतरनाक इरादों को अंजाम देते है। दोहरे व्यक्तित्व वाले लोगों की यूँ तो कोई उम्र-सीमा नहीं होती,लेकिन हाँ ये अपना कमाल घर से बाहर की दुनिया में कदम रखते ही दिखाना शुरू करते है।
                 हास्यप्रद बात तो ये है कि ऐसे लोग इस तरह अपने दोहरे किरदार के लगातार हिट होने के बाद इनमें ये वहम भी बड़ी गहराई से जगह बना लेता है कि इन्हें हमेशा ये आत्मविश्वास होता है कि इन्हें कोई बेनकाब नहीं कर सकता और ना ही इनका नाटक कभी खत्म हो सकता है। अब इन तमाशबीनों को कौन बताए कि हर चीज़ का एक दिन अंत होता है और उनके नाटक का भी होगा। कौन बताए इन्हें कि आपका दर्शक आपके इस घिनौने चहेरे को देखने के बाद भी उन्हें इसलिए नहीं देख रहा कि उन्हें ये नाटक बेहद रोमांचित कर रहा है। वास्तव में,वो तो सिर्फ इस ताक में है कि दोहरे चहरे वाले इनलोगों के किस भाग को पहले बेनकाब किया जाए? और बाक़ी बचीकूची कसर तो ब़ाकी दर्शक पूरी कर देंगे। अंत में,दोहरे चरित्र वाले और खुद को मजा हुआ ख़िलाड़ी समझने वाले लोगों को यहीं कहना है कि....."तमाशा खत्म मियां,अब तो मुखौटा उतार दो।"

रविवार, 14 सितंबर 2014

' सर्वविद्या की राजधानियों में बढ़ती लव,सेक्स और धोखे की वारदाते'

शिक्षा को एक ऐसा उचित दिशा-निर्देशन माना जाता है,जिससे एक सभ्य-समाज का निर्माण होता है और शिक्षा का एक ऐसा मन्दिर जहाँ  हर विधाओं की विद्या से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है,उस मन्दिर  को सर्वविद्या की राजधानी या विश्वविद्यालय कहते है। भारत में वर्तमान समय में,लगभग छह सौ से भी अधिक विश्वविद्यालय है। समय के साथ-साथ हमारी शिक्षण-प्रणाली में परिवर्तनों ने बड़ी तेज़ी से अपनी जगह ली है, जिसने विश्वविद्यालय के स्तर को एकदम अलग मानकों में ऊपर उठा दिया है। अब सर्वविद्या की राजधानी कहे जाने वाले विश्वविद्यालय में लगातार तथाकथित 'बुद्धिजीवियों के वर्ग' में बढ़ोतरी हो रही है तो वहीँ दूसरी तरफ इन मंदिरों के हर कोने-कोने से 'आधुनिक व् तार्किक सोच रखने वालों की'। इनसबमें सबसे तेज़, इन मंदिरों में लव,सेक्स और धोखा की वारदातें भी है जो दिन दूनी और रात चौगनी की रफ्तार में बढ़ रहा है। विश्वविद्यालयों में भारी तादाद में लड़कियों को प्रेमजाल में फांस कर उनके साथ सेक्स और धोखे का खेल खेला जा रहा है। अश्लील एमएमएस तो कभी जान से मारने की दम पर महिला-शोषण व हिंसा की वारदातों में बढ़ोतरी हो रही है। जिसके जिम्मेदार है-शिक्षा-केन्द्रों के पुरोधा( या दलाल)।
इन दलालों की कुछ सामान्य लक्षणो से इन्हें पहचाना जा सकता हैं-(1) ये हमेशा खुद को 'बुद्धिजीवी' बताते है।(2) ये हमेशा सामाजिक चोले में छिपे होते है,जो इन्हें बेहद सामाजिक या यूँ कहे जमीन से जुड़ा दिखाता है।(3) अलग-अलग विचारधाराओं के एक दो शब्द उगलते इन्हें आप देख सकते है- नारीवाद, साम्यवाद, वर्चस्व के सिद्धांत, धर्म, तार्किक सोच, फ़ासीवाद पर भाषण,दलित-सम्बन्धित मुद्दे इत्यादि।
      आज शिक्षा के इन केन्द्रों पर ऐसे गुरु-चेलों कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे है। जो खुद को इस मंदिर में स्थापित 'ईश्वर' मान लेते है और इनके चाकरी करने वाले खुद को पुजारी। और वास्तव में, ये शिक्षा-केन्द्रों के आशाराम होते है। जो अपनी 'बुद्धिजीवी' वाली खोल में अपनी हवस छिपाए बैठे होते है। वर्तमान समय में, शिक्षकों और आगामी बनने वाले शिक्षकों के चारित्रिक-पतन की घटनाए बेहद तेज़ी से बढ़ रही है। डिग्रियों के कार्पोरेट लबादे में छिपे ये भेड़िये तेज़ी से मासूम विद्यार्थियों के रूप में शोषण करने में जुटे है। जो एक सभ्य समाज को शर्मसार करती है। जब अपने 'सभ्य समाज' बनाने का जिम्मा इन दलालों के हांथो में होगा तो हमारे विकाशील देश का-'भगवान मालिक' है।
कक्षाओं में बड़ी-बड़ी डींग मारने वाले ये भेड़िये हरपल अपने अगले शिकार की फ़िराक में लगे हुए होते है,जो हमारे समाज के लिए बेहद ही घातक है। हाल में , प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के कुछ ऐसे आशाराम और उनके चमचों के बारे में पता चला। साहित्य से संचार तक, तकनीक से विज्ञान तक, संगीत से इतिहास तक, मानों चारों तरफ से ऐसे ये दलाल अपने हवस के भोंपू पर अपना गला फाड़ रहे है। इससे भी अधिक शर्मनाक बात ये है कि इसमें मठाधिशों के साथ-साथ प्रतिष्ठित परीक्षाएं पास करके आये युवा बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे है। ऑनलाइन कॉर्पोरेट की बुराई करने वाले,ऑफलाइन में उसी के दम पर अपने वहशीपन के धंधे को बढ़ा रहे है। ऐसे शिक्षित युवाओं में, 'प्ले बॉय' की अवधारणा का चलन बेहद तेज़ी से बढ़ रहा है,जिसका नतीजा ये है इन नवीन दलालों के यहाँ लड़कियों का ताता लगा रहता है। लेकिन इस कतार में महिलायें भी बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही है, जिसका खामियाज़ा उन लड़कियों और महिलाओं को भरना होता है जिन्हें रिश्तों का बाज़ार चलाने नहीं आता और अंत में वो धोखे का शिकार  हो जाती है। जहाँ एक तरफ,लड़के प्ले बॉय की अवधारणा लिए 'पुरुष वेश्यावृत्ति' की तरह काम करने लगे है तो वहीँ दूसरी तरफ, खुद को सशक्त कहने वाली महिलाएं इस व्यापार की बड़ी खरीददार बन रहीं है।लेकिन जब ये वहशी अपनी खोल इतनी निपुणता से बदलते है तो ग्राहक बनी महिलाएं भी ठग ली जाती है और कहीं न कहीं पितृसत्ता का वर्चस्व कायम हो जाता है।

इन सबके बीच इन सभी के गुरु भी अपनी उपस्तिथिउच्च दर्जे पर दर्ज कराते है। कभी कक्षा में बैठी लड़कियों पर छीटाकसी करके तो कभी सोशल मीडिया पर आधी रात को लड़कियों के इनबॉक्स में अपने हवस के छिटों वाले मेसेज भेज कर। लेकिन ये दलाल कुछ मामलों में बेहद ज्यादा खतरनाक साबित होते है। जैसे अगर किसी लड़की ने इनकों रिप्लाई करने से मना कर दिया तो पहले ये उसे परिपक्वता और स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाने की कोशिश करते है और अगर फिर भी दाल न गले तो सीधे उसके एजुकेशनल करियर को बर्बाद करने की तैयारी करने लगते है। जिसमें हमारे समाज की बनाई हुई स्त्री कोई जवाब नहीं दे पाती। या तो वो हरपल उसकी हैवानियत का शिकार बनती है, या फिर पढ़ाई खत्म कर घर बैठने पे मजबूर हो जाती है।

पाठकों के अनुरोध है कि अपनी राय जरूर दें!

स्वाती सिंह

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास का आरम्भ

 भारतीय इतिहास में,1 सितंबर,2014 एक ऐसे दिन के रूप में दर्ज किया गया,जब भारतीय इतिहास का एक सुनहरा कालखण्ड मानो,फिर से लौट आया। ये वो दिन था, जब आठ सदी बाद नालंदा विश्वविद्यालय का किवाड़ दोबारा खोला गया। बोधगया से 62 किलोमीटर व पटना से 90 किलोमीटर दूर स्तिथ इस विश्वविद्यालय को लगभग 821 साल पहले तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी की  सेना ने इसे तबाह कर दिया था। माना जाता है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना 450 ई. में गुप्त शासक कुमारगुप्त ने करवाई थी। जिसके बाद आने वाले तमाम देशी-विदेशी शासकों ने इसे संरक्षण दिया। लाल पत्थरों से निर्मित इस विश्वविद्यालय के अवशेष 14 हेक्टेयर के क्षेत्र में मिले थे। पिछले 1 सितंबर को यहाँ नये सत्र की शुरुआत हुई। यहाँ दो पाठ्यक्रम-पारिस्थिकी और पर्यावरण तथा इतिहास अध्ययन 15 विद्यार्थी और 11 विभागीय सदस्यों के साथ एक बार फिर पठन-पाठन का सिलसिला चल पड़ा। फ़िलहाल अस्थायी तौर पर नालंदा विश्वविद्यालय से लगभग 14 किलोमीटर दूर पढाई शुरू की गई है। यूँ तो आज़ादी के बाद से ही भारतीय इतिहास की इस स्वर्णिम ख्याति को कायम रखने का प्रयास जारी हुआ था। भूतपूर्व राष्ट्रपति डा.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने भी इस स्वर्णिम अतीत की वापसी का सुझाव दिया,जिसके बाद 2007 में बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके इसका फैसला किया गया। राज्य सरकार ने 'यूनिवर्सिटी ऑफ़ नालंदा' अधिनियम भी पारित किया। इतना ही नहीं, अक्टूबर 2009 में थाईलैंड में पूर्वी एशियाई देशों के सम्मेलन में इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय के रूप में पुन: स्थापित करने की बात हुई। 2010 में, नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक,तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में तैयार हुआ। विश्वविद्यालय की शासी निकाय में केंद्र और राज्य के अलावा मलेशिया,चीन,बर्मा,जापान,इंडोनेशिया,थाईलैंड,श्रीलंका समेत तमाम बौद्ध और भागीदारी देश सदस्य बने। पुरे उत्साह के साथ ये तमाम देश इस गौरवशाली शुरुआत में भारत की मदद करने में जुट भी गये है। जापान ने बोधगया-राजगीर-नालंदा मार्ग का चौड़ीकरण किया तो वहीं, चीन ने दस लाख डालर दिए, सिंगापुर ने पुस्तकालय का जिम्मा लिया और अमेरिका ने भी मदद की पेशकश की। आखिरकार, इतनी लम्बी जद्दोजहद के बाद ये प्रयास सफल हुआ और विश्वविद्यालय के किवाड़ फिर से खुल सके।
                
 माना जाता है कि,यहाँ दुनिया के कोने-कोने से आए लगभग दस हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे, जिनके लिए दो हजार शिक्षक थे। अवशेषो के आधार पर ये अनुमान लगाया जाता है कि, विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए कई चरणों में परीक्षाएं होती थी और निर्धारित मानदण्डों पर खरे उतरने पर ही यहाँ दाखिला मिल पाता था। यूँ तो इतिहास के उस काल खंड में लौट पाना मुमकिन नहीं है,लेकिन इसके बावजूद, नालंदा की उसी गरिमा को बनाए रखने के लिए ठीक वैसे ही मानदंडों को निर्धारित किया गया है।विश्वविद्यालय के पहले सत्र में दाखिला लेने के लिए दुनियाभर से करीब पन्द्रह सौ आवेदन आए थे,जिनमे से केवल पन्द्रह विद्यार्थी ही निर्धारित मानदंडों पर खरे उतर पाए। नालंदा विश्वविद्यालय की कुलपति डा.गोपा सभरवाल का कहना है कि," पुराने विश्वविद्यालय की प्रेरणा से ही इसकी स्थापना की गई है। उसके दर्शन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि भारत फिर से विश्वगुरु साबित हो सके।"भारत में इस गौरवशाली शुरुआत ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर कर लिया है।
             अब ये उम्मीद जताई जा रही है कि अपने सुनहरे इतिहास ये प्रेरणा लेकर नालंदा विश्वविद्यालय दोबारा अंतर्राष्ट्रीय शिक्षण केंद्र के रूप में जल्द विकसित होगा और  फिर से, अपनी स्तरीय शिक्षण-प्रणाली के लिए पूरी दुनिया में जाना जाएगा।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

गुमनाम 'रीवा' के सफ़ेद शेर

आज़ादी के करीब साढ़े छह दशकों में, सूचना और तकनीक के क्षेत्र में भारत ने अपना परचम दुनिया में लहरा दिया है। औद्योगिकीकरण और भौगोलिकरण की दौड़ में हम दुनिया के साथ कदम-से-कदम मिला कर चल रहे है। इसी की देन है, जो आज दुनिया के हर एक कोने-कोने से हम इस कदर जुड़ चुके है कि सात समन्दर दूर की हर एक हलचल की खबर हमें पलक झपकते मिलती है। सूचना और तकनीक की इस तरक्की ने मानो'दूरी'शब्द को ही गायब कर दिया है। लेकिन दुर्भाग्यवश! आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगातार हमारे गाँव और तमाम ऐतिहासिक जगहें रौंदी जा रही है। ये वे जगहें है जिनसे हमारी पहचान की जाती है। बरसों से जिन गांवों में हमारा वास्तविक भारत निवास करता आ रहा है और जिसने सदियों पुरानी हमारी संस्कृति की सम्पदा को समेटा है वे सभी इस दौड़ का शिकार हो रहे है। आज हमारे मीडिया में न तो गाँव दिखते है,न ऐतिहासिक शहर,न मजदूर और न किसान। दिखाई पड़ते है तो सिर्फ चकाचौंध में गुम देश,जहाँ कभी किसी के बयान पर घंटों चौपाल सजी होती है तो कभी कोई फ़िल्मी हस्ती के जन्मदिन में समर्पित होता है। मीडिया के जरिए हम दूसरे देशों के इतिहास क्या,उनके वर्तमान से लेकर भविष्य तक का पता लगा रहे है। लेकिन अपने देश में झाकने के लिए वक्त की कमी और टीआरपी का प्रश्न खड़ा हो जाता है। भारत में आज तमाम ऐसी जगहें है जिनका भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रहा है,लेकिन आज ये जगहें आधुनिकता की इस चमक में अपना अस्तित्व खोते जा रहे है। ऐसे ही जगहों में से एक है-मध्य प्रदेश का 'रीवा' जिला।
           कुल 2,365,106 की आबादी वाला ये शहर भारत के प्रमुख ऐतिहासिक नगरों में से एक है। महान सितार वादक 'अल्लाउद्दीन खान' हो या उनके शिष्य 'पंडित रविशंकर' या फिर अकबर के नवरत्न 'तानसेन' या 'बीरबल' हो, इन सभी का रीवा से घनिष्ट सम्बन्ध रहा। रीवा में बघेल राजपूतों का शासन था,जो गुजरात के चालुक्य वंशीय शाखा के थे। 1550 ई. के मध्य में रीवा के राजा रामचन्द्र सिंह बघेला ने महान गायकों की समिति बनाई,जिसमें उन्होंने तानसेन को भी शामिल किया। रामचन्द्र सिंह ने अकबर के नवरत्नों में शामिल होने के लिए 'तानसेन' व 'बीरबल' को मध्य प्रदेश की तरफ से भेजा। बीरबल का जन्म रीवा के 'सीधी' नाम की जगह में हुआ। इतना ही नहीं, सूर वंश के संस्थापक शेरशाह सूरी को रीवा के राजा वीर सिंह ने कालिंजर के युद्ध में हरा कर उसकी हत्या कर दी थी। रीवा भारत का पहला ऐसा राज्य था,जिसने राजा गुलाब सिंह के समय 'हिंदी' को अपनी राष्ट्रिय भाषा घोषित किया। ये शहर ब्रिटिश बघेलखण्ड एजेंसी की भी राजधानी रहा। रीवा के अंतिम शासक राजा मार्तण्ड सिंह थे। राजा मार्तण्ड सिंह के नाम पर रीवा में विश्व-प्रसिद्ध एक विशाल संग्रहालय बनाया गया है। भारत में 'सबसे पहला सफ़ेद शेर' रीवा में पाया गया,जिसका नाम 'मोहन' रखा गया था। फ़रवरी,2007 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की तरफ से, रीवा के व्यापक इतिहास पर 'बघेलखण्ड आर द टाइगर लेयेर्स' नाम की किताब का सम्पादन किया गया। ये किताब डा.डी.ई.वी. बेक्स ने बारह वर्षों के घन अध्ययन के बाद ये किताब लिखा। रीवा 'सुपाड़ी से बने खिलौनों' के लिए भी प्रसिद्ध है। जहाँ सुपाड़ी से बेहतरीन खिलौने बनाए जाते है। लेकिन अब ये कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।
रीवा आज आधुनिकीकरण की दौड़ में तेज़ी से भागते शहरों में से एक है।लेकिन रीवा के इतिहास को जानने के बाद इसकी वर्तमान स्तिथि देख कर ऐसा लगता है जैसे शहर की आरसीसी की मजबूत सड़कों ने तो इस शहर में अपना जाल बिछा दिया है,जिनके तले शहर अपने ऐतिहासिक अस्तित्व अपनी अंतिम सांसे ले रहा है। विश्व-प्रसिद्ध मार्तण्ड सिंह संग्रहालय मकड़ी के जालों और दीवार की सीलन का शिकार हो रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ रीवा की पहचान विशाल'बाणसागर बाँध' आज नाले में तब्दील हो चुका है और देश को पहला सफ़ेद शेर देने वाले इस शहर के पास एक भी शेर नहीं बचा। इसी तरह आज हमारे देश के कई और शहर,जिले व गाँव उम्मीद की टकटकी लगाए हुए है कि कब मीडिया के कैमरे और देश के बुद्धिजीवियों की कलम भारत के इन गुम होते गलियारों की ओर अपना रुख करेगी?

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

भारतीय शिक्षा के आईने में 'लोकतंत्र'

'भारतीय इतिहास की कई घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे,भावी मुकम्मिल योजना क्या होगी,यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। आज़ादी तो मिल गयी लेकिन आज़ादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएँगे उसके बारे में बहुत स्पष्टता नहीं थी"।- राजमोहन गाँधी( प्रसिद्ध इतिहासकार,दार्शनिक और पत्रकार)
वर्तमान समय में,भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ राजमोहन जी का ये कथन एकदम सटीक बैठता है। यूँ तो आज से साठ-पैसठ वर्ष पहले हमारा भारत आज़ाद हो गया था। आज़ादी के इतने सालों बाद क्या सच में हम आज़ाद हो पाए? इस सवाल का जवाब 'हाँ' में दे पाना मुश्किल है। समानता,साम्प्रदायिकता और जातिवाद जैसे जिन मुद्दों को लेकर 1857 में आज़ादी की जिस लड़ाई का आगाज हुआ,क्या वास्तव में,हमने उन मुद्दों पर आज़ादी हासिल कर ली? विशेषकर शिक्षा का मुद्दा,जिसके बूते दुनिया भर की सभ्यता,संस्कृति और समानता व स्वतन्त्रता जैसी अवधारणा तक हमारे देश में पहुची,जो न केवल देश के विकास के लिए ही नहीं देश की संस्कृति-साहित्य के लिए भी अहम है।1857 से 1947 तक के लम्बे समय के बाद,स्वाधीनता के इतने अनूठे हिंसारहित संघर्ष के बाद हासिल किया गया हमारा 'लोकतंत्र' क्या वास्तविक तौर पर 125 करोड़ की जनता तक पहुच पाया? ये कह पाना मुश्किल है। आज जब हम आये दिन अख़बार और न्यूज़ चैनलों में असमानता की बेचैन करने वाली खबरों को देखते है तो ऐसा लगता है मानो, स्वाधीनता की जटा से निकली गंगा को समाज के शीर्ष के दो-चार प्रतिशत अमीरों ने बांध बनाकर रोक लिया है।
            आज भारत की 74.04 प्रतिशत शिक्षित जनता में,जहाँ  82.1 प्रतिशत पुरुष है तो वहीँ दूसरी ओर,65.5 प्रतिशत महिला। भारत में हर साल 11 प्रतिशत यानि लगभग 30 लाख युवा स्नातक व स्नातकोतर करते है,लेकिन दुर्भाग्यवश! जिसमें उच्च शिक्षा के लिए सर्वे करने वाली संस्था ऐसोचैम के अनुसार,85 प्रतिशत भारतीय युवा अपनी योग्यता सिद्ध करने में असफल है। इससे पता चलता है कि हमारे देश के 650 शैक्षणिक संस्थान व 33,000 से ज्यादा डिग्री देने वाले कॉलेजों ने डिग्रीधारियों की तादात तो बढ़ा दी,लेकिन इनकी गुणवत्ता के लिए कोई खास काम नहीं किया। आज हमारे तथाकथित महान भारत में एक तरफ,भूख से मरते एक-एक कक्षा में सौ से भी अधिक बच्चे रोटी के जुगाड़ (मिड-डे-मील) के लिए स्कूल आते है तो वहीँ दूसरी ओर, एयरकंडिशन,प्रति कक्षा बीस से तीस बच्चे,हर वर्ष पन्द्रह दिन विदेशी स्कूल के साथ सहशिक्षा और इसके साथ ही घोड़े से लेकर हेलीकाप्टर तक सीखने की तैयारी करते है। जहाँ करोड़ों बच्चों के लिए तो स्कूल तक नहीं है। ऐसी असमान शिक्षा से हमारा देश किस समान देश की तरफ बढ़ रहा है और बढेगा?
                  यदि बात की जाय तकनीकी क्षेत्र में विकास की तो,पिछले तीन दशकों में,देश में हर वर्ष इंजिनीयर की संख्या करोड़ों हो गई है,लेकिन इसके बावजूद अभी-भी हम रक्षा,दवा,कृषि और तकनीक के क्षेत्र में पीछे है।क्या देश के इतने इंजिनीयर और करोड़ों बेरोजगार युवा इन क्षेत्रों में देश कोआत्मनिर्भर नहीं बना पा रहे? आज भारत मूल के तमाम वैज्ञानिक विदेशों में जा कर अपनी योग्यता का परचम लहरा रहे है,जिनकी रचनात्मकता को समझने में हमारा देश बौना साबित हो रहा है।चिकित्सा हो या विज्ञानं के दूसरे क्षेत्र क्यों दुनिया के प्रसिद्ध  जर्नल्स में हमारा एक भी शोध पत्र शामिल नहीं किया जाता?
भारत में शिक्षा के बिगड़ते हाल को एक साधारण से उदाहरण से समझा जा सकता है। भारत में क्रिकेट का कोई खिलाड़ी हो या फ़िल्मी-दुनिया की कोई हस्ती की जीवनी से लेकर दिनचर्या तक उनसे जुड़ी हर बात की जानकारी होती है हमे लेकिन यही प्रश्न अगर भारत के किसी वैज्ञानिक के बारे में पूछा जाय तो आधे से अधिक लोगों का डब्बा गुल वाली स्तिथि होती है। वहीँ दूसरी ओर, अगर आपसे किसी ऐसी भारतीय महिला वैज्ञानिक का नाम पूछा जाए जिन्हें नोबेल प्राइज से नवाजा गया हो तो आपके पास कोई उत्तर नहीं होगा। लेकिन हो सकता है आपके जेहन में एक बार सुनीता विलियम का नाम आये,जो भारतीय मूल की थी। तो आपको बता दें कि, वो वैज्ञानिक नहीं बल्कि एक इनजिनीयर थी।
वास्तव में ये सवाल है प्राथमिकताओं का, जिन्हें खड़ा करने का काम लोकतंत्र में कार्यपालिका,विधायिका और मीडिया करती है।
      बात करें शिक्षक बनने की,तो यूरोप के फ़िनलैंड या डेनमार्क में शिक्षक बनना सबसे मुश्किल है। क्यूंकि शिक्षक बनने के लिए उन्हें कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। लेकिन हमारे देश में,शिक्षा को लगातार निजीकरण का भोग बनने से कोई भी शिक्षक बन सकता है। उनके लिए बस एक योग्यता होनी चाहिए-अंगरेजी बोलना। इसके साथ ही,हमारे संविधान में सैक्युलर वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का प्रावधान है। लेकिन इसे लागू करने की कोई व्यवस्तिथ योजना हमारे पास नहीं है,जिसे बनाने में हमारे ये अंगरेजी बोलते शिक्षक फेल होते दिख रहे है। हमारे देश में अंगरेजी के बढ़ते महत्व के लिए ये कहना उचित नहीं कि जिस अंगरेजी के बिना हमारे देश का तीन प्रतिशत पढ़ा-लिखा वर्ग हाय-हाय करने लगता है।क्या उन्हें ये पता है कि इंग्लैंड के पड़ोसी देश फ्रांस,स्पेन,इटली व जर्मनी कहीं भी अंगरेजी की शिक्षा नहीं दी जाती लेकिन इसके बावजूद वे विज्ञानं,खेल,कला व साहित्य के क्षेत्रों में हमसे कोसो आगे है। सिर्फ हमारे ही देश में ऐसा होता है कि गेट कीपर से लेकर साफ़-सफाई का काम करने वालों का अंगरेजी टेस्ट लिया जाता है,जो उनके कार्य-कौशल को प्रमाणिकता प्रदान करता है। क्या अंगरेजी भाषा को लादने के नाम पर देश की अधिसंख्यक जनता को लोकतंत्र से वंचित नहीं किया जा रहा?
     वर्ष 1979 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिश पर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषा में लिखने की छूट मिली थी, जो 2010 तक जारी रही। इसका परिणाम ये हुआ कि हिंदी के लगभग 15 प्रतिशत और बाकी भारतीय भाषा के लगभग 5 प्रतिशत चुने गये उमीदवारों में अधिकतर वे है जो पहली पीढ़ी की शिक्षित है। यानि कि जिनके माता-पिता मजदूर,सफाई कर्मचारी व आदिवासी है। 2011 में भारतीय भाषाओं पर पहला प्रहार किया गया जिसका परिणाम ये हुआ कि भारतीय भाषाओं में चुने जाने वाले उमीदवार जो 2010 तक 15-20 प्रतिशत थे घटकर 2-3 प्रतिशत हो गये। इन सब के बाद सबसे आश्चर्य की बात ये है कि हमारे देश के प्रमुख केन्द्रों में बैठे बड़े-बड़े पत्रकार और बुद्धिजीवी क्यों इन मुद्दों पर अपनी चुप्पी साधे है? क्यों वे हमारे प्राथमिकताओं के नये व सुदृढ़ स्तम्भ खड़े करते जिससे हमारे देश की जनता डिग्रीधारी नहीं शिक्षित हो सके?
उम्मीद है कि नयी व्यवस्था परिवर्तन के जो संकेत दे रही है,शायद शिक्षा में बेहतर बदलाव की शरुआत हो सके।

स्वाती सिंह


मंगलवार, 2 सितंबर 2014

बाज़ारी मीडिया बनाम 'मर्दानी'

फिल्मों को किसी समाज का प्रतिबिम्ब कहा जाता है।फ़िल्में जो कभी हमारे साथ चलती है तो कभी हमसे आगे बढ़कर हमें हमारा भविष्य भी दिखाती है।फ़िल्में जनसंचार के सबसे प्रभावशाली माध्यमों में से एक है।ये हमें वो आइना दिखाती है जिसमें हम एकतरफ अपने इतिहास की झलक पाते है तो वहीँ दूसरी तरफ अपने वर्तमान को देख अपने भविष्य की कल्पना कर पाते है। ये फ़िल्में न केवल हमारे संदेशों को दुनिया तक पहुंचाती है,बल्कि समाज के उन तमाम वर्गों की भी आवाज बनकर उनके संदेश भी देती है जिन वर्गों को वर्षों से मूक घोषित किया जा चुका है।
1901 में, आर.पी.पर्नजै ने 'सेव दादा' रिकॉर्ड की, जो भारत की सबसे पहली डाक्यूमेंट्री फिल्म थी। 1912 में,आर.जी.टोर्ने और एन.जी.चित्रा के निर्देशन में भारत की पहली मूक फिल्म-'पुंडलिक' बनी और 1913 में,घुन्दिराज गोविन्द फाल्के(दादा साहेब फाल्के) की फिल्म'राजा हरिश्चन्द्र', जो एक मूक फिल्म थी। 1931 में,भारत की पहली बोलती  फिल्म-'अलामारा'बनी। इस तरह हमारे भारत में फिल्म-निर्माण का ये सिलसिला शुरू हुआ,जिसने कभी थमने का नाम नहीं लिया। आज भारत दुनिया में,सर्वाधिक फिल्म-निर्माण के लिए जाना जाने लगा है,जहाँ हर वर्ष हजारों फ़िल्में बनाई जाती है।भारत में आज फिल्म-निर्माण का एक बड़ा बाज़ार है। शुरू से ही,भारत को 'मसालों का देश'कहा जाता था जो भारत को औरों से अलग करती थी। ठीक उसी तरह, आज भारत अपनी मसाला फिल्मों की वजह से दुनिया के फिल्म-जगत में अपनी एक अलग पहचान बना चुका है।आज इन मसाला फिल्मों की ही देन है, जो फिल्म-जगत अपने व्यापार के इस बड़े बाज़ार का परचम विदेशों तक गाड़ चुका है, जो आर्थिक लाभ देने में तो पूर्णरूप से सफल है,लेकिन सामाजिक रूप से कहीं न कहीं हानि का शिकार हो रहा है। इन मसालों का भुगतान आज उन फिल्मों को करना पड़ रहा है। फ़िल्में जिनके पास कोई बड़ा बैनर नहीं जिसके तले वो अपनी फिल्म को एक बड़ी बजट की मसाला फिल्म बना सके। जिसका नतीज़ा ये होता है कि ये फ़िल्में कभी-भी दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती और खासकर उस वर्ग के पास को कतई नहीं जिनके लिए इन फिल्मों का निर्माण किया जाता है।ये वो फ़िल्में होती है,जिनकी कहानी समाज के किसी मुद्दे पर लिखी जाती है और जिनमें किसी मसाले का रंग नहीं चढ़ा होता। वैसे आज हमारी इन मसाला-फ़िल्मों के लिए ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि, मिलावट के इस जमाने में खाने के मसाले की तरह फिल्म के मसाले नकली चीज़े परोसे जा रहे है, जिससे हमारा फिल्म जगत खुद को नहीं बच सका। आज लोगों की डिमांड और 'जो दिखता है,जो बिकता है'जैसी कहावतों का हवाला देकर अश्लील समाग्री से बने इन फ़िल्मी मसालों को अश्लील पैकेट में बकायदा बेचा जा रहा है।
 इस सबके बीच,जब 'मर्दानी' जैसी फ़िल्में सुपरहिट होती है तो उम्मीद की एक किरण दिखाई पड़ती है कि आज भी हमारे समाज में दर्शकों का एक ऐसा बड़ा वर्ग है जिन्हें इन मिलावटी मसाला फिल्मों की बखूबी समझ है। जिन्हें सिनेमा हाल तक लाने के लिए अश्लील व महंगे पोस्टरों और आइटम नंबर जैसे मिलावटी मसलों के नाम पर परोसी जाने वाली अश्लीलता की ज़रूरत नहीं है। जिनके लिए जरूरी है तो सिर्फ एक सच्ची कहानी की, जो हमारे समाज को इसका वास्तविक चेहरा दिखा सके।प्रदीप सरकार के निर्देशन में बनी फिल्म 'मर्दानी' एक ऐसी ही फिल्म है। जिसकी कहानी गोपी पुथ्रन ने लिखी। 111 मिनट की इस फिल्म का बजट 14 करोड़ था। पहले हफ्ते में इस फिल्म ने बजट से  दोगुनी कमाई की। दीप्ति कुमार और फहद मुस्तफा के निर्देशन में बनी फिल्म'कटियाबाज़' के बाद 'मर्दानी' दूसरी ऐसी फिल्म है जिसे सरकार ने टैक्स फ्री किया। समाज में,बढ़ती महिला-हिंसा पर बनी को रानी मुखर्जी के बेजोड़ अभिनय ने फिल्म में जान फूंक दी। इस फिल्म के माध्यम से मानव-तस्करी और देह व्यापार जैसे गंभीर मुद्दों को उजागर किया गया।जिसमे रानी मुखर्जी ने एक सशक्त महिला पुलिस इंस्पेक्टर का किरेदार निभाया। ये फिल्म महिला के एक ऐसे सशक्त पहलु को उजागर करती है,जिसे समाज की बनाई हुई स्त्री कहीं न कहीं भूलती जाती है।फिल्म में रानी के एक डायलॉग में " नजर बदल के देखो तो मै नजर नहीं लगने दूंगी,पर छेड़ के देखो तुम मुझको,मै तुमको नहीं छोडूंगी।" इस डायलॉग में,महिला के उन दो पहलुओं को उजागर किया जहाँ वो एक तरफ एक माँ,बहन और बीवी जैसे रिश्ते में नजर उतारती है तो वहीँ उसपर नजर डालने वाले की नजर झुका देती है।    
         ऐसा नहीं की 'मर्दानी' से पहले किसी ऐसी फिल्म का निर्माण नहीं हुआ।2003 में,मनीष झा के निर्देशन में बनी फिल्म-'मातृभूमि:ए नेशन विथाउट वोमेन' एक ऐसी ही फिल्म है। जिसमे वर्तमान समय में महिलाओं के साथ हो रहे व्यवहार और भविष्य में होने वाले इसके परिणाम को बखूबी दिखाया गया है। लेकिन अफ़सोस ये फिल्म हमारे समाज की उन दर्शकों तक नहीं पहुँच सकी,जिन्हें मसाले से ज्यादा मुद्दों को समझने की समझ हो। यूँ तो,समाज के ऐसे तमाम गंभीर मुद्दों पर हर साल कई फ़िल्में बनाई जाती है,लेकिन वो 'मर्दानी' जैसे अपने दर्शकों तक पहुँचने में सफल नहीं होती। चाहे वो 2013 में, पानी की समस्या पर बनी फिल्म 'जल' हो या फिर सामप्रदायिक दंगों पर बनी फिल्म 'साहिद' हो।यूँ तो इन फ़िल्मों और 'मर्दानी' में कोई ख़ास अंतर नहीं है। लेकिन हाँ, इन फिल्मों में रानी मुखर्जी जैसी बड़ी अभिनेत्री या अभिनेता नहीं होते और ना ही इन फिल्मों के रिलीज होने से पहले न्यूज़ चैनलों में इन फिल्मों की चर्चा होती और ना ही इनके कलाकार रियलिटी शो में जा कर अपनी फिल्म के बारे में लोगों को रु-ब-रु करा पाते है।'दिखने और बिकने' की तकनीक तो यहाँ भी जोरों पर काम करती है जहाँ फ़िल्मों से जुड़े बड़े नाम के साथ टीवी और मीडिया के जरिए फिल्म रिलीज होने से पहले ही दर्शकों के जेहन में इसके कौतुहल को रिलीज कर दिया जाता है। जिसका परिणाम ये होता है कि 'मैरी कॉम' जैसी फिल्मों को रिलीज होने से पहले ही टैक्स फ्री कर दिया जाता है। इसका पूरा श्रेय जाता है हमारे मीडिया को जो ऐसी फिल्मों के रिलीज से पहले इनके बारे में दर्शकों को अवगत कराने में सफल होती है। काश!मीडिया इसी तरह उन तमाम फ़िल्मों के लिए भी काम करे जो इन मसाला और बाज़ार के दाव पेचों में फसकर अपने दर्शकों से कोसों दूर रह जाती है।

स्वाती सिंह