शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास का आरम्भ

 भारतीय इतिहास में,1 सितंबर,2014 एक ऐसे दिन के रूप में दर्ज किया गया,जब भारतीय इतिहास का एक सुनहरा कालखण्ड मानो,फिर से लौट आया। ये वो दिन था, जब आठ सदी बाद नालंदा विश्वविद्यालय का किवाड़ दोबारा खोला गया। बोधगया से 62 किलोमीटर व पटना से 90 किलोमीटर दूर स्तिथ इस विश्वविद्यालय को लगभग 821 साल पहले तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी की  सेना ने इसे तबाह कर दिया था। माना जाता है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना 450 ई. में गुप्त शासक कुमारगुप्त ने करवाई थी। जिसके बाद आने वाले तमाम देशी-विदेशी शासकों ने इसे संरक्षण दिया। लाल पत्थरों से निर्मित इस विश्वविद्यालय के अवशेष 14 हेक्टेयर के क्षेत्र में मिले थे। पिछले 1 सितंबर को यहाँ नये सत्र की शुरुआत हुई। यहाँ दो पाठ्यक्रम-पारिस्थिकी और पर्यावरण तथा इतिहास अध्ययन 15 विद्यार्थी और 11 विभागीय सदस्यों के साथ एक बार फिर पठन-पाठन का सिलसिला चल पड़ा। फ़िलहाल अस्थायी तौर पर नालंदा विश्वविद्यालय से लगभग 14 किलोमीटर दूर पढाई शुरू की गई है। यूँ तो आज़ादी के बाद से ही भारतीय इतिहास की इस स्वर्णिम ख्याति को कायम रखने का प्रयास जारी हुआ था। भूतपूर्व राष्ट्रपति डा.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने भी इस स्वर्णिम अतीत की वापसी का सुझाव दिया,जिसके बाद 2007 में बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके इसका फैसला किया गया। राज्य सरकार ने 'यूनिवर्सिटी ऑफ़ नालंदा' अधिनियम भी पारित किया। इतना ही नहीं, अक्टूबर 2009 में थाईलैंड में पूर्वी एशियाई देशों के सम्मेलन में इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय के रूप में पुन: स्थापित करने की बात हुई। 2010 में, नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक,तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में तैयार हुआ। विश्वविद्यालय की शासी निकाय में केंद्र और राज्य के अलावा मलेशिया,चीन,बर्मा,जापान,इंडोनेशिया,थाईलैंड,श्रीलंका समेत तमाम बौद्ध और भागीदारी देश सदस्य बने। पुरे उत्साह के साथ ये तमाम देश इस गौरवशाली शुरुआत में भारत की मदद करने में जुट भी गये है। जापान ने बोधगया-राजगीर-नालंदा मार्ग का चौड़ीकरण किया तो वहीं, चीन ने दस लाख डालर दिए, सिंगापुर ने पुस्तकालय का जिम्मा लिया और अमेरिका ने भी मदद की पेशकश की। आखिरकार, इतनी लम्बी जद्दोजहद के बाद ये प्रयास सफल हुआ और विश्वविद्यालय के किवाड़ फिर से खुल सके।
                
 माना जाता है कि,यहाँ दुनिया के कोने-कोने से आए लगभग दस हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे, जिनके लिए दो हजार शिक्षक थे। अवशेषो के आधार पर ये अनुमान लगाया जाता है कि, विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए कई चरणों में परीक्षाएं होती थी और निर्धारित मानदण्डों पर खरे उतरने पर ही यहाँ दाखिला मिल पाता था। यूँ तो इतिहास के उस काल खंड में लौट पाना मुमकिन नहीं है,लेकिन इसके बावजूद, नालंदा की उसी गरिमा को बनाए रखने के लिए ठीक वैसे ही मानदंडों को निर्धारित किया गया है।विश्वविद्यालय के पहले सत्र में दाखिला लेने के लिए दुनियाभर से करीब पन्द्रह सौ आवेदन आए थे,जिनमे से केवल पन्द्रह विद्यार्थी ही निर्धारित मानदंडों पर खरे उतर पाए। नालंदा विश्वविद्यालय की कुलपति डा.गोपा सभरवाल का कहना है कि," पुराने विश्वविद्यालय की प्रेरणा से ही इसकी स्थापना की गई है। उसके दर्शन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि भारत फिर से विश्वगुरु साबित हो सके।"भारत में इस गौरवशाली शुरुआत ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर कर लिया है।
             अब ये उम्मीद जताई जा रही है कि अपने सुनहरे इतिहास ये प्रेरणा लेकर नालंदा विश्वविद्यालय दोबारा अंतर्राष्ट्रीय शिक्षण केंद्र के रूप में जल्द विकसित होगा और  फिर से, अपनी स्तरीय शिक्षण-प्रणाली के लिए पूरी दुनिया में जाना जाएगा।

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