रविवार, 14 सितंबर 2014

' सर्वविद्या की राजधानियों में बढ़ती लव,सेक्स और धोखे की वारदाते'

शिक्षा को एक ऐसा उचित दिशा-निर्देशन माना जाता है,जिससे एक सभ्य-समाज का निर्माण होता है और शिक्षा का एक ऐसा मन्दिर जहाँ  हर विधाओं की विद्या से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है,उस मन्दिर  को सर्वविद्या की राजधानी या विश्वविद्यालय कहते है। भारत में वर्तमान समय में,लगभग छह सौ से भी अधिक विश्वविद्यालय है। समय के साथ-साथ हमारी शिक्षण-प्रणाली में परिवर्तनों ने बड़ी तेज़ी से अपनी जगह ली है, जिसने विश्वविद्यालय के स्तर को एकदम अलग मानकों में ऊपर उठा दिया है। अब सर्वविद्या की राजधानी कहे जाने वाले विश्वविद्यालय में लगातार तथाकथित 'बुद्धिजीवियों के वर्ग' में बढ़ोतरी हो रही है तो वहीँ दूसरी तरफ इन मंदिरों के हर कोने-कोने से 'आधुनिक व् तार्किक सोच रखने वालों की'। इनसबमें सबसे तेज़, इन मंदिरों में लव,सेक्स और धोखा की वारदातें भी है जो दिन दूनी और रात चौगनी की रफ्तार में बढ़ रहा है। विश्वविद्यालयों में भारी तादाद में लड़कियों को प्रेमजाल में फांस कर उनके साथ सेक्स और धोखे का खेल खेला जा रहा है। अश्लील एमएमएस तो कभी जान से मारने की दम पर महिला-शोषण व हिंसा की वारदातों में बढ़ोतरी हो रही है। जिसके जिम्मेदार है-शिक्षा-केन्द्रों के पुरोधा( या दलाल)।
इन दलालों की कुछ सामान्य लक्षणो से इन्हें पहचाना जा सकता हैं-(1) ये हमेशा खुद को 'बुद्धिजीवी' बताते है।(2) ये हमेशा सामाजिक चोले में छिपे होते है,जो इन्हें बेहद सामाजिक या यूँ कहे जमीन से जुड़ा दिखाता है।(3) अलग-अलग विचारधाराओं के एक दो शब्द उगलते इन्हें आप देख सकते है- नारीवाद, साम्यवाद, वर्चस्व के सिद्धांत, धर्म, तार्किक सोच, फ़ासीवाद पर भाषण,दलित-सम्बन्धित मुद्दे इत्यादि।
      आज शिक्षा के इन केन्द्रों पर ऐसे गुरु-चेलों कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे है। जो खुद को इस मंदिर में स्थापित 'ईश्वर' मान लेते है और इनके चाकरी करने वाले खुद को पुजारी। और वास्तव में, ये शिक्षा-केन्द्रों के आशाराम होते है। जो अपनी 'बुद्धिजीवी' वाली खोल में अपनी हवस छिपाए बैठे होते है। वर्तमान समय में, शिक्षकों और आगामी बनने वाले शिक्षकों के चारित्रिक-पतन की घटनाए बेहद तेज़ी से बढ़ रही है। डिग्रियों के कार्पोरेट लबादे में छिपे ये भेड़िये तेज़ी से मासूम विद्यार्थियों के रूप में शोषण करने में जुटे है। जो एक सभ्य समाज को शर्मसार करती है। जब अपने 'सभ्य समाज' बनाने का जिम्मा इन दलालों के हांथो में होगा तो हमारे विकाशील देश का-'भगवान मालिक' है।
कक्षाओं में बड़ी-बड़ी डींग मारने वाले ये भेड़िये हरपल अपने अगले शिकार की फ़िराक में लगे हुए होते है,जो हमारे समाज के लिए बेहद ही घातक है। हाल में , प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के कुछ ऐसे आशाराम और उनके चमचों के बारे में पता चला। साहित्य से संचार तक, तकनीक से विज्ञान तक, संगीत से इतिहास तक, मानों चारों तरफ से ऐसे ये दलाल अपने हवस के भोंपू पर अपना गला फाड़ रहे है। इससे भी अधिक शर्मनाक बात ये है कि इसमें मठाधिशों के साथ-साथ प्रतिष्ठित परीक्षाएं पास करके आये युवा बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे है। ऑनलाइन कॉर्पोरेट की बुराई करने वाले,ऑफलाइन में उसी के दम पर अपने वहशीपन के धंधे को बढ़ा रहे है। ऐसे शिक्षित युवाओं में, 'प्ले बॉय' की अवधारणा का चलन बेहद तेज़ी से बढ़ रहा है,जिसका नतीजा ये है इन नवीन दलालों के यहाँ लड़कियों का ताता लगा रहता है। लेकिन इस कतार में महिलायें भी बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही है, जिसका खामियाज़ा उन लड़कियों और महिलाओं को भरना होता है जिन्हें रिश्तों का बाज़ार चलाने नहीं आता और अंत में वो धोखे का शिकार  हो जाती है। जहाँ एक तरफ,लड़के प्ले बॉय की अवधारणा लिए 'पुरुष वेश्यावृत्ति' की तरह काम करने लगे है तो वहीँ दूसरी तरफ, खुद को सशक्त कहने वाली महिलाएं इस व्यापार की बड़ी खरीददार बन रहीं है।लेकिन जब ये वहशी अपनी खोल इतनी निपुणता से बदलते है तो ग्राहक बनी महिलाएं भी ठग ली जाती है और कहीं न कहीं पितृसत्ता का वर्चस्व कायम हो जाता है।

इन सबके बीच इन सभी के गुरु भी अपनी उपस्तिथिउच्च दर्जे पर दर्ज कराते है। कभी कक्षा में बैठी लड़कियों पर छीटाकसी करके तो कभी सोशल मीडिया पर आधी रात को लड़कियों के इनबॉक्स में अपने हवस के छिटों वाले मेसेज भेज कर। लेकिन ये दलाल कुछ मामलों में बेहद ज्यादा खतरनाक साबित होते है। जैसे अगर किसी लड़की ने इनकों रिप्लाई करने से मना कर दिया तो पहले ये उसे परिपक्वता और स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाने की कोशिश करते है और अगर फिर भी दाल न गले तो सीधे उसके एजुकेशनल करियर को बर्बाद करने की तैयारी करने लगते है। जिसमें हमारे समाज की बनाई हुई स्त्री कोई जवाब नहीं दे पाती। या तो वो हरपल उसकी हैवानियत का शिकार बनती है, या फिर पढ़ाई खत्म कर घर बैठने पे मजबूर हो जाती है।

पाठकों के अनुरोध है कि अपनी राय जरूर दें!

स्वाती सिंह

1 टिप्पणी:

  1. सबसे अहम् सवाल यह है कि इसका निदान कैसे ढूंढा जाए??? क्या समाज इतना जड़ हो चूका है कि परिवर्तन संभव नहीं, या फिर इन सारे कुचक्रों की जड़ समाज के मूल में ही निहित है??? अगर ऐसा है तो क्या साध्वी प्रज्ञा की "नवनिर्माण के लिए विध्वंस की आवश्यकता" वाले तर्क को जायज ठहराया जाना चाहिए???

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