मंगलवार, 2 सितंबर 2014

बाज़ारी मीडिया बनाम 'मर्दानी'

फिल्मों को किसी समाज का प्रतिबिम्ब कहा जाता है।फ़िल्में जो कभी हमारे साथ चलती है तो कभी हमसे आगे बढ़कर हमें हमारा भविष्य भी दिखाती है।फ़िल्में जनसंचार के सबसे प्रभावशाली माध्यमों में से एक है।ये हमें वो आइना दिखाती है जिसमें हम एकतरफ अपने इतिहास की झलक पाते है तो वहीँ दूसरी तरफ अपने वर्तमान को देख अपने भविष्य की कल्पना कर पाते है। ये फ़िल्में न केवल हमारे संदेशों को दुनिया तक पहुंचाती है,बल्कि समाज के उन तमाम वर्गों की भी आवाज बनकर उनके संदेश भी देती है जिन वर्गों को वर्षों से मूक घोषित किया जा चुका है।
1901 में, आर.पी.पर्नजै ने 'सेव दादा' रिकॉर्ड की, जो भारत की सबसे पहली डाक्यूमेंट्री फिल्म थी। 1912 में,आर.जी.टोर्ने और एन.जी.चित्रा के निर्देशन में भारत की पहली मूक फिल्म-'पुंडलिक' बनी और 1913 में,घुन्दिराज गोविन्द फाल्के(दादा साहेब फाल्के) की फिल्म'राजा हरिश्चन्द्र', जो एक मूक फिल्म थी। 1931 में,भारत की पहली बोलती  फिल्म-'अलामारा'बनी। इस तरह हमारे भारत में फिल्म-निर्माण का ये सिलसिला शुरू हुआ,जिसने कभी थमने का नाम नहीं लिया। आज भारत दुनिया में,सर्वाधिक फिल्म-निर्माण के लिए जाना जाने लगा है,जहाँ हर वर्ष हजारों फ़िल्में बनाई जाती है।भारत में आज फिल्म-निर्माण का एक बड़ा बाज़ार है। शुरू से ही,भारत को 'मसालों का देश'कहा जाता था जो भारत को औरों से अलग करती थी। ठीक उसी तरह, आज भारत अपनी मसाला फिल्मों की वजह से दुनिया के फिल्म-जगत में अपनी एक अलग पहचान बना चुका है।आज इन मसाला फिल्मों की ही देन है, जो फिल्म-जगत अपने व्यापार के इस बड़े बाज़ार का परचम विदेशों तक गाड़ चुका है, जो आर्थिक लाभ देने में तो पूर्णरूप से सफल है,लेकिन सामाजिक रूप से कहीं न कहीं हानि का शिकार हो रहा है। इन मसालों का भुगतान आज उन फिल्मों को करना पड़ रहा है। फ़िल्में जिनके पास कोई बड़ा बैनर नहीं जिसके तले वो अपनी फिल्म को एक बड़ी बजट की मसाला फिल्म बना सके। जिसका नतीज़ा ये होता है कि ये फ़िल्में कभी-भी दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती और खासकर उस वर्ग के पास को कतई नहीं जिनके लिए इन फिल्मों का निर्माण किया जाता है।ये वो फ़िल्में होती है,जिनकी कहानी समाज के किसी मुद्दे पर लिखी जाती है और जिनमें किसी मसाले का रंग नहीं चढ़ा होता। वैसे आज हमारी इन मसाला-फ़िल्मों के लिए ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि, मिलावट के इस जमाने में खाने के मसाले की तरह फिल्म के मसाले नकली चीज़े परोसे जा रहे है, जिससे हमारा फिल्म जगत खुद को नहीं बच सका। आज लोगों की डिमांड और 'जो दिखता है,जो बिकता है'जैसी कहावतों का हवाला देकर अश्लील समाग्री से बने इन फ़िल्मी मसालों को अश्लील पैकेट में बकायदा बेचा जा रहा है।
 इस सबके बीच,जब 'मर्दानी' जैसी फ़िल्में सुपरहिट होती है तो उम्मीद की एक किरण दिखाई पड़ती है कि आज भी हमारे समाज में दर्शकों का एक ऐसा बड़ा वर्ग है जिन्हें इन मिलावटी मसाला फिल्मों की बखूबी समझ है। जिन्हें सिनेमा हाल तक लाने के लिए अश्लील व महंगे पोस्टरों और आइटम नंबर जैसे मिलावटी मसलों के नाम पर परोसी जाने वाली अश्लीलता की ज़रूरत नहीं है। जिनके लिए जरूरी है तो सिर्फ एक सच्ची कहानी की, जो हमारे समाज को इसका वास्तविक चेहरा दिखा सके।प्रदीप सरकार के निर्देशन में बनी फिल्म 'मर्दानी' एक ऐसी ही फिल्म है। जिसकी कहानी गोपी पुथ्रन ने लिखी। 111 मिनट की इस फिल्म का बजट 14 करोड़ था। पहले हफ्ते में इस फिल्म ने बजट से  दोगुनी कमाई की। दीप्ति कुमार और फहद मुस्तफा के निर्देशन में बनी फिल्म'कटियाबाज़' के बाद 'मर्दानी' दूसरी ऐसी फिल्म है जिसे सरकार ने टैक्स फ्री किया। समाज में,बढ़ती महिला-हिंसा पर बनी को रानी मुखर्जी के बेजोड़ अभिनय ने फिल्म में जान फूंक दी। इस फिल्म के माध्यम से मानव-तस्करी और देह व्यापार जैसे गंभीर मुद्दों को उजागर किया गया।जिसमे रानी मुखर्जी ने एक सशक्त महिला पुलिस इंस्पेक्टर का किरेदार निभाया। ये फिल्म महिला के एक ऐसे सशक्त पहलु को उजागर करती है,जिसे समाज की बनाई हुई स्त्री कहीं न कहीं भूलती जाती है।फिल्म में रानी के एक डायलॉग में " नजर बदल के देखो तो मै नजर नहीं लगने दूंगी,पर छेड़ के देखो तुम मुझको,मै तुमको नहीं छोडूंगी।" इस डायलॉग में,महिला के उन दो पहलुओं को उजागर किया जहाँ वो एक तरफ एक माँ,बहन और बीवी जैसे रिश्ते में नजर उतारती है तो वहीँ उसपर नजर डालने वाले की नजर झुका देती है।    
         ऐसा नहीं की 'मर्दानी' से पहले किसी ऐसी फिल्म का निर्माण नहीं हुआ।2003 में,मनीष झा के निर्देशन में बनी फिल्म-'मातृभूमि:ए नेशन विथाउट वोमेन' एक ऐसी ही फिल्म है। जिसमे वर्तमान समय में महिलाओं के साथ हो रहे व्यवहार और भविष्य में होने वाले इसके परिणाम को बखूबी दिखाया गया है। लेकिन अफ़सोस ये फिल्म हमारे समाज की उन दर्शकों तक नहीं पहुँच सकी,जिन्हें मसाले से ज्यादा मुद्दों को समझने की समझ हो। यूँ तो,समाज के ऐसे तमाम गंभीर मुद्दों पर हर साल कई फ़िल्में बनाई जाती है,लेकिन वो 'मर्दानी' जैसे अपने दर्शकों तक पहुँचने में सफल नहीं होती। चाहे वो 2013 में, पानी की समस्या पर बनी फिल्म 'जल' हो या फिर सामप्रदायिक दंगों पर बनी फिल्म 'साहिद' हो।यूँ तो इन फ़िल्मों और 'मर्दानी' में कोई ख़ास अंतर नहीं है। लेकिन हाँ, इन फिल्मों में रानी मुखर्जी जैसी बड़ी अभिनेत्री या अभिनेता नहीं होते और ना ही इन फिल्मों के रिलीज होने से पहले न्यूज़ चैनलों में इन फिल्मों की चर्चा होती और ना ही इनके कलाकार रियलिटी शो में जा कर अपनी फिल्म के बारे में लोगों को रु-ब-रु करा पाते है।'दिखने और बिकने' की तकनीक तो यहाँ भी जोरों पर काम करती है जहाँ फ़िल्मों से जुड़े बड़े नाम के साथ टीवी और मीडिया के जरिए फिल्म रिलीज होने से पहले ही दर्शकों के जेहन में इसके कौतुहल को रिलीज कर दिया जाता है। जिसका परिणाम ये होता है कि 'मैरी कॉम' जैसी फिल्मों को रिलीज होने से पहले ही टैक्स फ्री कर दिया जाता है। इसका पूरा श्रेय जाता है हमारे मीडिया को जो ऐसी फिल्मों के रिलीज से पहले इनके बारे में दर्शकों को अवगत कराने में सफल होती है। काश!मीडिया इसी तरह उन तमाम फ़िल्मों के लिए भी काम करे जो इन मसाला और बाज़ार के दाव पेचों में फसकर अपने दर्शकों से कोसों दूर रह जाती है।

स्वाती सिंह

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