बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

यहूदी की लड़की

भारत के सबसे प्रतिष्टिठित थिएटरों में से एक है, दिल्ली का श्री राम सेण्टर थिएटर । 1975 में बने इस थिएटर पर एक बार अभिनय करने का सपना भारत के हर एक कलाकार के मन में पलता है,लेकिन बहुत कम ही सौभाग्यशाली कलाकार इस मंच पर अभिनय कर पाते है। हर साल भारत के कोने-कोने से गिनेचुने कुछ बेहतरीन नाटकों का मंचन यहाँ किया जाता है। हर साल की तरह, इस बार भी श्री राम थिएटर के 'थिएटर फेस्टिवल- मंचनाद' में भारत के गिने-चुने कुछ बेहतरीन नाटकों को सम्मिलित किया गया है,जिनमें से एक नाटक बीएचयू से चुना गया है। जो उत्तर-प्रदेश से चुना जाने वाला एकमात्र नाटक है।  
        बीएचयू से चुने जाने वाले इस नाटक का नाम 'यहूदी की लड़की ' है, जिसे आज से करीब सौ साल पहले सन 1915 में आगा हर्श कश्मीरी ने लिखा था। आगा हर्श कश्मीरी को उर्दू का शेक्सपियर कहा जाता है,जिनका ताल्लुक हमारे बनारस से रहा है। आगा हर्श के लिखे इस नाटक का निर्देशन बीएचयू के मनोविज्ञान विभाग के छात्र रजनीश कुमार ने किया है, जिसे इस साल श्री राम सेंटर ने अपने थिएटर फेस्टिवल-'मंचनाद' के लिए चुना गया है। ये नाटक 'काशी रंगमंडल' के बैनर तले किया जा रहा है।    इस नाटक का मंचन सबसे पहले 6 अक्तूबर 2013 को बीएचयू के स्वतन्त्रता भवन में किया गया था। जिसे 9 फ़रवरी 2014 को लखनऊ नेशनल थिएटर फेस्टिवल में भी चुना जा चुका है। अब ये नाटक दिल्ली के श्री राम सेण्टर( मंडी हाउस ) में 3 नवम्बर 2014 को शाम छह बजे से होने वाला है।    

     सौ साल पहले एक यहूदी की लड़की पर लिखे इस नाटक को निर्देशक ने, आज के समय से जोड़कर ऐसी जान फूंकी दी कि इसकी सफलता के दरवाज़े एक के बाद एक खुद-ब-खुद लगातार खुलते जा रहे है।लेकिन अफ़सोस इस सफलता के बिगुल की आवाज पूरे भारत में तो फ़ैल रही है पर अपना शहर और वो विश्वविद्यालय,जिनके ये छात्र है वे इनकी सफलता से बिल्कुल अनजान है। इस नाटक में कुल बीस छात्र अभिनय कर रहे है,जो बीएचयू के अलग-अलग संकाय है। इन कलाकारों में,प्रखर दुबे, राजकुमार, निधी श्री, सौरभ मिश्रा, अनुपम कुमार सिंह, सना सबा, सूरज प्रताप सिंह, अनुराग पांडे, नितीश कुमार, आशुतोष गाँधी,अमन श्रीवास्तव, वरुण कपूर, विकास यादव, मो.सिकंदर, प्रदीप यादव, अंकिता सिंह, विवेक सिंह, आर्यन श्रीवास्तव, अरुण कुमार किरण, आदित्य सिन्हा है। 

       इन सभी छात्रों ने आज से तीन साल पहले मिलकर एक टीम के रूप में काम करना शुरू किया। जिनका मूल उद्देश्य बीएचयू में सांस्कृतिक रचनात्मकता का सृजन कर,गुम होते कलाकारों को एक सही व योग्य मंच उपलब्ध कराना और छात्रों के भीतर छुपी कला को खोज निकालना था। आखिर इन छात्रों की मेहनत आज रंग लायी और ये युवा आज सफलता के उस मुकाम पर खड़े है जहाँ तक पहुंचने में कितने कलाकारों की उम्र निकल जाती है। लेकिन हमारे बीच इन अदभुत प्रतिभाओं को आज अपने पंजीकरण के लिए जहाँ अन्य थिएटर मंडलों का मुंह निहारना पड़ रहा है तो वहीं नाटक की पूरी तैयारी का खर्च ये छात्र खुद उठाने को मजबूर है। ना तो इन्हें इनके विश्वविद्यालय की तरफ से कोई सहायता प्रदान की जा रही है ना ही सरकार की तरफ से जो बेहद दुखद है।लेकिन इन मुश्किलों के बावजूद,इन छात्रों लगन रंग लायी और अब इन नादान परिंदों के पंखों की उड़ान अब आकाश की ऊँची बुलंदियां छूने को आतुर है।

 युवाओं के इस जज्बे को सलाम।

स्वाती सिंह

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

'काबिल बने कामयाबी खुद आपके पीछे आएगी।'


आजकल हर अख़बार और न्यूज़-चैनलों में युवाओं के विरोध-प्रदर्शन सुर्ख़ियों में है। सिविल परीक्षाओं में सी-सैट लागू होने से गुस्साए छात्र अलग-अलग युवा-छात्र संगठन के बैनर तले प्रदर्शन करते सड़कों तक उतर आए। सी-सैट में भाषा को लेकर हुए बदलाव से हिन्दी-भाषी छात्र सबसे ज्यादा गुस्साए है। इन छात्रों का मानना है कि इस नये पैटर्न में हिन्दी को स्थान नहीं दिया गया,जो सरकार की हिन्दी-भाषी क्षेत्र के खिलाफ़ जानबूझकर बनाई योजना है। जिसके खिलाफ़ वे प्रदर्शन कर रहे है।             
         पुरे भारत में मूलत: दो प्रदेशों( यूपी और बिहार ) में ये विरोध-प्रदर्शन सबसे ज्यादा देखने मिल रहा है। विरोध करते छात्रों की इतनी अधिक संख्या देखकर ऐसा लगता है कि शिक्षित युवाओं का प्रदर्शन नहीं, पगलाई भीड़ का प्रदर्शन है जिनकी न तो कोई सोच है न कोई दिशा। दुनिया के शक्तिशाली देशों में से एक देश के युवाओं का ऐसा प्रदर्शन करना, कहीं-न-कहीं वहां युवाओं के लिए उपलब्ध अवसर पर सवाल खड़े कर देते है। युवाओं के इस तरह के प्रदर्शन ऐसा लगता है कि मानो सिविल सेवाओं के अलावा इनके पास कोई विकल्प ही नहीं है।            
         इसके साथ ही,भाषा को संचार का माध्यम होता है,जो किसी के ज्ञान का मानक नहीं होता है।लेकिन भाषा को मुद्दा बना कर लगातार राजनितिक पार्टियों के युवा-संगठन अपनी रोटियां सेंक रहे है और इन सबमें युवाओं का बिना सोचे-समझे सड़क पर उतरना बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं लगता। ये प्रश्न हमारे देश के भविष्य को भी प्रश्न-चिन्हित कर देती है। ये पूरी घटनाक्रम को देखकर इन युवाओं के लिए आमिर खान की एक फिल्म का डायलाग याद आता है कि-" काबिल बनो,कामयाबी झकमार कर पीछे आएगी।"

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

'अमिताभ की संघर्ष-कथा'


युगांक वीर द्वारा लिखी इस किताब को पढ़ा....बहुत दिनों से सदी के महानायक-'अमिताभ जी' के बारे में पढ़ने का मन था।तभी किताबों की बीच छुप्पी इस किताब पर नजर गयी,जिसे काफ़ी दिन पहले खरीदा था। बिग बी के बारे में और ज्यादा जानने की ललक से बड़े अरमानों के साथ किताब पढ़ना शुरू किया।जैसे-जैसे किताब की पन्ने पलटे गई ,मानो सारे अरमानों पर जैसे पानी फिरता सा महसूस हुआ। किताब का कवर यूँ तो पूरी तरह अमिताभ जी को समर्पित है,जिसे देख कर लगता है कि किताब में अमिताभ जी से जुड़ी जानकारियां होंगी। जानकारियों को लेखक ने कहानी की तरह बताने की कोशिश की है और बीच-बीच में कविता की कुछ पंक्तियों के माध्यम से जया और अमिताभ जी के प्रेम-प्रसंग को प्रस्तुत किया। लेकिन इन खूबियों के बावजूद लेखक प्रारंभ से लेकर अंत तक भ्रमित लगे,कि आखिरकार वे जानकारी किसके बारे में देना चाहते है समझ ही न आया। किताब के पहले पेज पर ये अंकित किया गया था कि किताब डा.हरिवंशराय बच्चन,ख्वाजा अहमद अब्बास और हृषिकेश मुकर्जी को समर्पित।अमिताभ जी के जीवन में इनकी भूमिका की जगह उनकी उपलब्धियों के बखान पर ध्यान ज्यादा केन्द्रित किया गया।इसके साथ ही, पूरी किताब के ज्यादातर पेज अमिताभ के समकालीन उभरते फ़िल्मी सितारों और निर्देशकों की फिल्मों की कहानी पर समर्पित थे। अमिताभ जी के बारे छुट-पुट जानकारी पाठक किताब में चुने बिना नहीं पा सकता।
अंत में,इस तरह की किताब लिखने वाले समाज के महान लेखकों और इन्हें प्रकाशित करने वाले प्रकाशन केन्द्रों से ये अनुरोध है कि कृपा करके किताब का कवर और नाम का चयन किताब के विषय के अनुसार करें। जिससे पाठक को हवाई बातों की अपेक्षा विषय की सही जानकारी मिले और वे आसानी से अपनी रूचि के अनुसार किताबे प्राप्त कर सके।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

हैदर':- इंतकाम से आज़ादी तक का सफ़र

2 अक्टूबर,2014 को रिलीज हुई,विशाल भारद्वाज की फिल्म- हैदर।           
         गाँधी-जयंती पर आई इस फिल्म ने खूबसूरत वादियों वाली जन्नत -'कश्मीर', के सन्नाटों में कैद 'आज़ादी' की चीख को मानो दर्शकों के सामने पर्दे पर उतार दिया। शाहिद कपूर,श्रद्धा कपूर,तब्बू,इरफ़ान खान व केके मेनन द्वारा अभिनीत इस फिल्म के माध्यम से विशाल भारद्वाज ने, खूबसूरत वादियों के चारों तरफ घिरे लोहे के बाड़ों और फ़ौज की तैनाती में कसी  घुट-घुट कर आज़ादी की पुकार लगाती जिंदगियां तो वहीं दूसरी तरफ,श्रापित इंसानियत का शिकार होकर मानवता के खून से लहूलुहान झेलम की चुप्पी को बड़े ही सम्वेदनशील अंदाज में फिल्माया है और बरसों से बर्फीली कब्रों में ढके इन मुद्दों को पर्दे पर उतार कर एक नयी जान फूंक दी है। हैदर के जरिए, खुद के अस्तित्व को तलाशते इंसान की जिंदगी को सामने लाया गया ह जहाँ वो पलपल सोचता है कि -' दिल की सुनु  तो तू है,दिमाग की सुनु तो तू नहीं। जान लूँ की जान दूँ,मैं रहूँ कि मैं नहीं।'      
            इस फिल्म को देखकर शुरू से लेकर अंत तक जेहन में बस एक शब्द गूंजता है-'इंतकाम'। इंतकाम की इस लड़ाई में एक इंसान की क्या हालत होती है जब वो अपने आप से, अपने परिवार से,अपने लोगों की श्रापित इंसानियत का शिकार होकर किस कदर हरपल घुट-घुट कर जीता है और उसके कदम कितनी बार लड़खड़ाते है सम्भलते है,इस हर एक पल के एहसास को महसूस करने के लिए ये फिल्म दर्शकों को मजबूर कर देती है। सरहद की लड़ाई से लेकर अपनों की लड़ाई तक, इंतकाम के आगाज़ से लेकर,इंतकाम से आज़ादी तक की कहानी को विशाल ने हैदर में समेटा है। इस फिल्म ने एक बार फिर साबित कर दिया कि बॉलीवुड में 'रंगीन मसालों' के बिना भी सफल फ़िल्में बनाई जा सकती है। जिसका श्रेय निर्देशकों के साथ-साथ उस दर्शक वर्ग को भी जाता है जिन्हें अब खूबसूरत वादियों में फिल्माया रोमांस रास नहीं आता। अब वो इन खूबसूरत वादियों की पीछे छिपे इसके सच को जानना चाहते है।  फिल्म के अंत में,तब्बू का 'इंतकाम' को लेकर तब्बू का अंतिम डायलाग जो मुझे पूरी फिल्म में सबसे ज्यादा पसंद आया आप सभी से शेयर करना चाहूंगी-
" इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है और जब तक हम इंतकाम से आज़ाद नहीं हो जाते,तब तक हमें कोई आज़ादी आज़ाद नहीं कर सकती।"

स्वाती सिंह