शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

रज़िया सुल्तान :- ' इतिहास में दर्ज़,एक पहेली के लिए पहल और पहल से पहली तक का सफ़र'

भारतीय इतिहास में ,1236 ई. दर्ज़ है, एक शासक की ऐसी 'पहल'से जिसमें एक 'पहेली' को 'पहली' का दर्जा दिया गया और सुनहरी कलम से लिखी गई इस पहल की दास्तां।
        ग्यारहवी शताब्दी से भारतीय इतिहास में दर्ज किया गया 'गुलाम वंश' का इतिहास। जिसकी स्थापना की मुहम्मद गौरी के सबसे अज़ीज़ गुलाम- कुतुबुद्दीन ऐबक ने। और जिसके बाद, भारत की ज़मीन गवाह बनी एक और नए राजवंश की। गुलाम वंश के शासकों का कारवां उनके उजले इतिहास की रोशनी में अपने भविष्य की चाह लिए वर्तमान में दौड़ने लगा। कुतुबुद्दीन के बाद दिल्ली की गद्दी पर आरामशाह ने सत्ता सम्भाली लेकिन वो ज़्यादा दिन तक सत्ता में नहीं टिक सका। नतीज़न इल्तुतमिश ने 1211 ई. में गुलाम वंश की बागडोर सम्भाली।
        इल्तुतमिश सफलतापूर्वक 1211 ई. से 1236 ई. तक शासन किया और सुशासन की एक मिशाल खड़ी की। इल्तुतमिश द्वारा अपने उत्तराधिकारी का चुनाव, जिसमें उसने अपनी बेटी जलालात-उद-दिन-रजिया (रज़िया सुल्तान) को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो भारतीय इतिहास में दर्ज़ एक ऐसी पहल बना, जिसने उस समय समाज की एक पहेली को पहली में तब्दील कर दिया। रज़िया सुल्तान मुस्लिम व तुर्की इतिहास की पहली महिला शासक बनी।
         1231-1232 ई. में जब इल्तुतमिश ग्वालियर विजय के लिए गया तो उसने दिल्ली गद्दी रज़िया को सौंपीं। रज़िया ने एक वर्ष तक बड़ी योग्यता से शासन का संचालन किया। जिसने रज़िया के एक कुशल शासक होने पर मुहर लगा दी और जिसके बाद, इल्तुतमिश ने 1236 ई. में रज़िया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इल्तुतमिश ने बचपन से ही रज़िया को राजकुमारों के समान तालीम दी, उसे अच्छे राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक और सेनानायक के भी गुण सिखाये गए।
          रज़िया हमेशा से शासन से जुड़े कार्यों में हिस्सा लेती रहती थी। लेकिन इल्तुतमिश का ये फैसला तुर्क अमीर और उनकी मजहबी-परम्परा के अनुयायियों को नागवार गुजरा। उन्हें एक महिला को अपना 'सरताज़' बनाना कतई गवारा ना था। नतीज़न उनलोगों ने सुल्तान की मृत्यु के दूसरे दिन ही उसके जीवित पुत्र रुकनुद्दीन फिरोजशाह को सिंहासन पर बैठा दिया, लेकिन अपनी विलासिता और अयोग्यता के कारण वो ज़्यादा समय तक गद्दी पर ना टिक सका। जिसके बाद जनता में अराजकता फ़ैल गई और इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए रज़िया गद्दी पर बैठी।
        यूँ तो रज़िया ने मात्र तीन वर्ष, छह माह तक ही शासन किया, लेकिन इन तीन वर्षों में रज़िया ने गुलाम वंश को एक नया मुकाम दिया। क्या राज्य विस्तार और क्या सुशासन रज़िया ने हर क्षेत्र पर सफलता का परचम लहराया। प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज ने रज़िया की सफलता के बारे में लिखा है कि," लखनौती से देवल तथा समस्त मालिकों और अमीरों ने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली "। इतना ही नहीं, फ़रिश्ता रज़िया के बारे में लिखते है कि," वह शुद्ध उच्चारण करके कुरान का पाठ करती थी तथा अपने पिता के जीवन काल में शासन कार्य भी किया करती थी"।
        रज़िया और उसके सलाहकार, जमात-उद-दिन-याकुत एक हब्शी के साथ की नजदीकी धीरे-धीरे लोगों की आँखों की किरकिरी बनने लगी थी। जिससे जनता में रज़िया के प्रति एक शक पनाह लेने लगा था। इसी बीच, भटिंडा के राज्यपाल मल्लिक इख़्तियार-उद-दिन-अल्तुनिया ने 1240 ई अन्य प्रान्तीय राज्यपालों, जिन्हें रज़िया का आधिपत्य नामंजूर था, उनलोगों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया और रज़िया को बन्धक बना लिया गया। अंत में रज़िया को अपनी जान बचाने के लिए अल्तुनिया से विवाह करना पड़ा।
              इस तरह एक पहल में पहेली से पहली तक का सफ़र तय करने वाली रज़िया सुल्तान के शासनकाल का अंत हुआ। लेकिन यदि इस अंत को रज़िया की योग्यता से जोड़ कर आंका जाए तो ये हम सभी की सबसे बड़ी भूल होगी। क्योंकि रज़िया को उत्तराधिकार में मिली गद्दी काँटों से भरी थी, जिसके साथ उसे मिला प्रजा का असहयोग और तुर्की सरदारों का रोष, जिन सभी पर रज़िया ने फतह का परचम लहराया। लेकिन वो कहते है कि जब आपकी आस्तीन से ही साँप पनपने लगे तो फिर बाहरी दुश्मनों की क्या ज़रूरत? ऐसा ही रज़िया के साथ भी हुआ जब उसके अपने उसके ख़िलाफ़ बगावत पर उतर आए तो उसे अपने पैर पीछे खींचने पड़े।
           दिल्ली के चांदनी चौक के नजदीक तुर्कान गेट से एक पतला रास्ता बुलबुली खान की तरफ जाता है, जहां रज़िया सुलतान की कब्र बनाई गई है। पर कहते है ना कि इंसान मरता है, विचार और एक इंसानियत की मिशाल नहीं। तो इसी तर्ज पर अपनी मृत्यु के इतने समय के बाद भी रज़िया एक विचार और एक सकारात्मक पहल की मिशाल की अमर मशाल बन चुकी है।

स्वाती सिंह
    

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