मंगलवार, 31 मार्च 2015

सॅटॅलाइट चैनलों की प्रसिद्ध होती : एक संस्कृति

आजकल अंतरिक्ष में जहां दिन दोगुनी और रात चौगुनी के हिसाब से सॅटॅलाइट चैनलों की तादाद बढ़ रही है। वहीं दूसरी ओर दक्षिण-एशिया में इन सॅटॅलाइट चैनलों के प्रोग्राम की संख्या बढ़ती जा रही है। इन कार्यक्रमों में, खासतौर पर अंग्रेजी भाषा के कार्यक्रम का प्रसारण अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जाता है। जिसके दर्शक अधिकांशतः अभिजात वर्ग से है। इस लेख में हमलोग अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों का भारतीय दर्शकों पर पड़ने वाले प्रभाव और उनकी प्रतिक्रियाओं के बारे में चर्चा करेंगे। जिसमें हम मुखयतः-जी, सोनी और स्टार जैसे अंतर्राष्ट्रीय चैनलों को केंद्रित करेंगे । इसके अतिरिक्त, लेख में यह भी विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे कि आखिर नयी भारतीय मध्यम वर्गीय परिवारों के बीच लोकप्रिय होते ये सॅटॅलाइट प्रोग्राम किन बिंदुओं पर अंतर्राष्ट्र और राष्ट्र को मिलाते है। और इसके साथ ही इन कार्यक्रमों के प्रचार व प्रायोजकों के लिए कौन-कौन से विचार व उद्देश्य निर्धारित किये जाते है।             

    कई साल पहले, भारतीय मध्यमवर्गीय दर्शकों के समक्ष एकमात्र चैनल था-'दूदर्शन'। या यूँ कहें कि भारतीय मध्यमवर्गीय घरों की टीवी पर दूरदर्शन का एकाधिकार था। जिसमें  मुख्य रूप से भारतीय राज्यों में, राजनीति व विकास की विचारधारा के सास्कृतिक रूप से प्रचार पर जोर दिया गया। जिसके बाद,नए सॅटॅलाइट चैनलों ने दूरदर्शन के इस एकाधिकार को खत्म किया। और अपने दर्शकों को अपने ग्राहक के रूप में स्वीकार किया व उनकी व्यक्तिगत पसन्द के आधार पर कई अवसर के द्वार खोल दिए। जो एक नयी विचारधारा के रूप में उभरा। जहां उन्होंने राज्य से सम्बंधित पूर्व निर्धारित मानकों को मानने की बजाय, समाज के पुराने रीति-रिवाज़ों से हटकर भारतीय व पूर्वी देशों के विचारों के समन्वय से बने नए विचारों को स्थान देना शुरू किया। जिससे अब भारतीय मध्यम वर्गीय दर्शक अब सिर्फ दर्शक नहीं, बल्कि ग्राहक बनते गए। जिससे जनता में निरन्तर बदलाव एक चलन के तौर पर चल पड़ा।                  

                'मेरी आवाज़ सुनो ', 'अंताक्षरी' और 'सा रे गा मा पा' जैसे कार्यक्रम भारतीय युवाओं के बीच प्रसिद्ध होने लगे। इसके साथ ही, 'आप की अदालत' जैसे कार्यक्रम ने लोगों की भागीदारी सिर्फ दर्शक होने के साथ-साथ प्रश्नकर्ता के रूप में भी उन्हें स्थान दिया। और उनके सवालों और विचारों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सबीना किदवई (शिक्षिका) का मानना है कि, सॅटॅलाइट टीवी ने लोगों को अधिक से अधिक अभिव्यक्ति के अवसर दिए है। प्रसिद्ध सॅटॅलाइट चैनलों ने पौराणिकता से ज़्यादा नए विचार या यूँ कहें कि आधुनिक विचारों और इनके विभिन्न पहलुओं पर ज़्यादा ध्यान दिया है। जिससे भारतीय मध्यमवर्गीय दर्शकों का रुझान दूरदर्शन से सॅटॅलाइट टीवी की ओर तेज़ी से पलायन कर रहा है।          

                 यदि बात की जाय अंग्रेजी भाषा की बढ़ती या यूँ कहें बनी हुई लोकप्रियता की तो  दक्षिण एशियाई देशों में आज भी अंग्रेजी सीखने और बोलने का चलन काफी प्रचलित है। नतीजन मध्यम वर्गीय अंग्रेजी तालीम हासिल करने वाले परिवारों ने सॅटॅलाइट के इस चलन को अंग्रेजी भाषा की तरह तवज्जों देते हुए, इसे स्वीकार किया। जिसमें भारतीय मध्यमवर्गीय लोगों ने अंग्रेजी समाचार के लिए दूरदर्शन से सीधे स्टार, बीबीसी और सीएनएन की तरफ पलायन कर लिया।  मनोरंजन के लिए उन्हें जी व सोनी जैसे चैनल मिले, तो वहीं खेलकूद की खबरों के लिए स्टार और इएसपीयन और विज्ञान व पर्यावरण के लिए डिस्कवरी जैसे चैनल मिले। दर्शकों की रूचि के अनुसार उपलब्ध चैनल और इनकी विशेषज्ञता इस पलायन का मूल कारण बनी। इसके साथ ही, विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से इन सॅटॅलाइट चैनलों ने लोगों की रूचि का भी अध्ययन किया। जिनके आधार पर इन्होंने अपनी केंद्रित जनता के अनुसार कार्यक्रमों का निर्माण कार्य शुरू किया। इन चैनलों में, स्टार न्यूज़, स्टार मूवीज, सीएनएन और बीबीसी प्रमुख है। इस तरह, भारत व अन्य दक्षिण एशियाई देशों में अंग्रेजी भाषायी मध्यमवर्ग के बीच सॅटॅलाइट चैनलों के चलन ने रफ़्तार पकड़ ली।             

              सॅटॅलाइट चैनलों की बढ़ती लोकप्रियता ने दक्षिण एशिया में एम टीवी ने एक नयी पीढ़ी को जन्म दिया है। जो एम टीवी पीढ़ी कहलाती है।युवाओं के बीच एम टीवी का चलन काफी प्रचलित है। ये चैनल युवाओं पर केंद्रित कार्यक्रमों को प्रसारित करता है, जिसने युवाओं के बीच इसके लोकप्रियता के ग्राफ को काफी ऊँचा कर दिया है। फैशन से लेकर रॉक गानों तक और रियलिटी शो से लेकर युवाओं पर केंद्रित कार्यक्रमों ने एक नए चलन को बढ़ावा दिया है। आश्चर्य की बात ये है कि इस चैनल की लोकप्रियता कई पिछड़े राज्यों में भी देखने को मिल रही है। भाषा-क्षेत्र के भेदभाव से ऊपर एम टीवी ने युवाओं को एक संस्कृति में जोड़ रही है।              

             सॅटॅलाइट-संस्कृति ने हिंदी व अंग्रेजी भाषा से परे इनदोनो के मेल से एक नयी भाषा का सृजन किया। जिसे 'हिंगलिश' कहा जाता है। जिसमें भाषा के एकाधिकार की जगह इस समन्यवित भाषा को स्थान दिया गया। जिससे सन्देशों के संचार के रास्ते में भाषा कोई रोड़ा ना बने और लोग आसानी से इन कार्यक्रमों से खुद को जोड़ पाएं।        

              भाषा के इस समन्वय ने नगरीय दर्शकों के बीच हिंदी सॅटॅलाइट मनोरंजन चैनलों के प्रचलन को भी बढ़ावा दिया है। जिसका सीधा प्रभाव हम हिंदी सिनेमा की बढ़ती लोकप्रियता के रूप में देख सकते है। जैसा की हमलोग जानते है, कि सिनेमा हमेशा से भाषा, व्यवहार और लोगों की जीवन-शैली में अपना गहरा प्रभाव छोड़ती है। और सॅटॅलाइट चैनलों के इस प्रभाव ने लोगों के जीवन-आदर्श तक पर गहरा प्रभाव डाला है। सिनेमा व अन्य टीवी सीरियलों की कहानी के पात्र अब लोगों के जीवन-आदर्शों की जगह लेने लगे है। क्योंकि सॅटॅलाइट चैनलों ने ऐसे कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जिससे लोग खुद को जोड़कर देख सके जो आदर्श-निर्माण से लेकर भाषा जैसे जीवन से जुड़े अनेक पहलुओं को प्रभावित करती है।            
 
             सॅटॅलाइट कार्यक्रमों में बच्चों और महिला प्रस्तुतिकरण को बढ़ावा मिला। इन चैनलों में एक ओर जहां बच्चों को केंद्रित करते हुए कार्टून चैनलों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर, महिला केंद्रित कार्यक्रमों का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चों पर केंद्रित कार्यक्रम एक ओर जहां उन्हें मनोरंजन के साथ शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है। वहीं दूसरी ओर ये चैनल बच्चों को खेल के मैदान से दूर घण्टों टीवी के सामने बैठे रहने पर मजबूर कर रहे। या यूँ कहें की ये बच्चों को टीवी का लती बना रहा है, जो आज अधिकांश अभिभावकों के चिंता का सबब बन चुका है। महिलाओं के सन्दर्भ में, ये कार्यक्रम वर्तमान समय में महिलाओं से जुड़े कई ऐसे पहलुओं को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है जो बरसों से छिपे रहे या जानबूझ कर छिपाये गए। लेकिन कहीं न कहीं बाजार की इस अंधी दौड़ में महिलाओं का प्रदर्शन एक वस्तु की तरह किया जाने लगा। जिस आधार पर कई नारीवादी इन सॅटॅलाइट चैनलों में महिला प्रस्तुतिकरण की आलोचना करते है।     

           सॅटॅलाइट चैनलों में प्रचार एजेंसी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है, जिसकी वजह से कई बार ये रचनात्मकता पर हावी होती दिखती है। इस तरह सॅटॅलाइट चैनल अब दक्षिण एशिया में मनोरंजन,खबर,खेल और प्रचार के क्षेत्र में एक  बाज़ार स्थापित कर चुका है।

स्वाती सिंह

रविवार, 15 मार्च 2015

शहीद उधम सिंह :- "एक सफ़र -जलियावालाबाग हत्याकांड के इंतकाम से शहादत के नाम"

भारतभूमि साक्षी है, देश की आज़ादी के लगभग नब्बे वर्ष के बनते इतिहास का। जिस दौरान इस देश ने देखा - बलिदान, देशप्रेम, संघर्ष, हक की लड़ाई और प्रशासन की लगाई आग में झुलसती इंसानियत।
                    अमृतसर में स्तिथ स्वर्ण मन्दिर को भारत की सम्पन्न संस्कृति और इतिहास के मानकों में अहम माना जाता है, लेकिन 13 अप्रैल 1919 ये वो तारीख है जब सम्पन्नता का मानक माना जाने वाला ये मन्दिर साक्षी बना, 'एक नृशंस हत्याकांड' यानी की 'जलियावाला बाग़ हत्याकांड' का।
                  रोलेट एक्ट का विरोध करने के जुर्म में डा.सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। नतीजन आक्रोशित भारतीय जनता ने इस गिरफ्तारी के विरोध में, स्वर्ण मन्दिर के पास स्तिथ जलियावालाबाग में एक जनसभा का आयोजन किया। जब ये सुचना अंग्रेजी सरकार को मिली तो गवर्नर जनरल माइकल ओ ड्वायर ( रेजीनॉल्ड एडवाड हैरी डायर ) के निर्देशन में जलियावाला बाग़ में सभा के दौरान बाग़ के सभी दरवाजे बन्द कर दिए गए और जनसभा कर रहे भारतीयों को चारो तरफ से घेर लिया गया, जिसके बाद अंग्रेजी सेना ने धुंआधार बन्दूक से फायरिंग की । देखते ही देखते वहां लाशों का ढेर हो गया, क्या बच्चे, क्या औरतें, क्या बूढ़े और क्या जवान, बिना किसी रियायत के लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। बाग़ में लगी एक पट्टी के अनुसार 120 शव कुए से बरामद हुए।
     जलियावालाबाग़ हत्याकांड की ये घटना, भारतीय इतिहास में दर्ज उन घटनाओं में से एक है जब इंसानियत को शर्मसार कर दिया गया और आज भी उस घटना का ज़िक्र हर भारतीय की आत्मा को झकझोर देता है। लेकिन अफ़सोस, हर बार की तरह इस घटना का विवरण तो इतिहास में वृहत रूप से किया गया पर उस शख्स को इतिहास ने अपने उजाले से दूर रखा जिसने इस घटना का बदला लिया और आज़ादी की लड़ाई को एक ऊँचे मुकाम तक पहुंचाया। उस शख्स का नाम है - उधम सिंह।

उधम सिंह का जन्म पंजाब के संगरुर जिले के सुनाम गांव में हुआ। उनका वास्तविक नाम शेर सिंह था। सन् 1901 में शेर सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का देहांत हो गया। माता-पिता की मृत्यु के बाद शेर सिंह और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह ने पंजाब के एक अनाथ आश्रम में पनाह ली। दुर्भाग्यवश! सन् 1917 में उनके बड़े भाई की भी मृत्यु हो गई। जिसके बाद, सन् 1919 में शेर सिंह ने क्रांतिकारियों से हाथ मिलाया और आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान देने में जुट गए। जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना ने शेर सिंह को बुरी तरह आहत किया और उन्होंने इस नृशंस घटना का बदला लेने की प्रतिज्ञा की।
      सन् 1934 में उधम सिंह जनरल ओ ड्वायर की तलाश में लन्दन पहुंचे और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड के पास रहने लगे। जिसके बाद 13 मार्च 1940, यानी जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना के कुल 21 साल बाद, रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की लन्दन के एक हाल में बैठक का आयोजन किया गया। जहां माइकल ओ ड्वायर वक्ताओं में से एक था। मौका मिलते ही उधम सिंह ने हाल में जनरल पर दो गोलियां दागी, जिससे जनरल की तुरन्त मौत हो गई।
          जिसके बाद, 4 जून 1940 में उधम सिंह को हत्या जा दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी दे दी गयी। उधम सिंह के इस बलिदान के लिए उन्हें शहीद-ए-आज़म की उपाधि दी गई। इसके साथ ही, उत्तर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के एक जिले का नाम भी इनके नाम पर 'उधम सिंह नगर' रखा गया है। सन् 2000 में शहीद उधम सिंह नाम से एक फ़िल्म भी बनाई गई, जो उधम सिंह के जीवन पर आधारित है। लेकिन अफ़सोस, भारत सरकार ने उधम सिंह को 'शहीद-ए-आज़म' की उपाधि से तो नवाज दिया पर उनके जीवन से जुड़ी वस्तुएं ,उनके विचार और उनपर लिखी किताबों को संग्रहित करने के लिए कोई जगह मुहैया ना करा सकी। नतीज़न, आज उधम सिंह की यादें एक छोटे से पुराने कमरे में अपनी यादें, विचार और इतिहास के कई पन्ने समेटे अपने गुम होते अस्तित्व के एक-एक पल की साक्षी बन रही है।
         आज़ादी के इतने सालों बाद आज भी जहां एक ओर जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना का ज़िक्र देशवासियों की आखों सामने उस निर्मम मंजर को याद दिलाता है। वहीं दूसरी ओर, उधम सिंह का व्यक्तित्व एक सच्चे देशभक्त की मिशाल बनकर हर देशवासी का सिर गर्व से ऊपर कर देता है। इतिहास के अँधेरे में गुम इस हीरे समान व्यक्तित्व को देश की ओर से श्रद्धांजलि।

स्वाती सिंह

गुरुवार, 12 मार्च 2015

परीक्षा के लिए आवश्यक है -संयम, समझ और प्रभावी-प्रस्तुतिकरण   

     
      आमतौर पर परीक्षा का नाम सुनते है, हमलोगों के जहन में ढेर सारी किताबें और एक अजीब से मानसिक तनाव का एहसास होने लगता है। परीक्षा को लेकर हमलोगों के मन में बनने वाली इस संरचना को इसके तात्विक स्तम्भों से समझना ज़रूरी है। वास्तव में, यदि हम परीक्षा को चिन्ता, दबाव और गम्भीरता मात्र से जोड़ कर देखते है तो इस दृष्टिकोण से अब हमें इसे बदलने की सख्त आवश्यता है।     
                क्योंकि वास्तव में परीक्षा एक क्लास से दूसरी में जाने की हो या फिर नौकरी की होड़ में अव्वल आ कर नौकरी पा लेने की हो, ये सभी परीक्षाएं सिर्फ हमारे ज्ञान-भण्डार को आंकने का पैमाना नहीं होती, बल्कि इसके विपरीत ये किसी विषय पर हमारी समझ और उस समझ के प्रस्तुतिकरण को आंकती है। किसी भी परीक्षा के लिए गम्भीरता अनिवार्य है, लेकिन यदि ये गम्भीरता सही दिशा की ओर नहीं है तो ये निर्रथक होती है।     
              परीक्षाएं चाहे पढ़ाई से जुडी हो या फिर जीवन से जुडी ये हमेशा हमारे संयम और समझ की मांग करती है। किसी भी कठिन परिस्तिथि में हम किस तरह अपने जवाब को सवाल के अनुसार ढालते है। गम्भीरता और पूरी सतर्कता के साथ अपने ज्ञान को जवाब के अनुरूप ढालना ज़रूरी है।ये एक ऐसी कला है, जिसे सीखने के बाद हम किसी भी परीक्षा में असफल नहीं हो सकते। फिर चाहे वो जीवन से जुडी हो या फिर शिक्षा से।      
                सवालों के अनुसार अपने जवाब को बनाने की कला ना केवल हमारे ज्ञान की मांग करती है बल्कि ये मांग करती है, "संयम"- शांत मन से सवाल को समझने की। "समझ"-प्रश्न के अनुसार उस विषय पर अपने ज्ञान को सारगर्भित करने की, और सबसे ज़रूरी "प्रभावी-प्रस्तुतिकरण"- प्रश्न समझने के बाद ज्ञान को सारगर्भित करके उसे प्रभावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करना। ये कला ना केवल हमें परीक्षाओं में सफलता दिलाती है बल्कि ये हमारे व्यक्तित्व में रचनात्मकता का भी सृजन करती है।   
                यदि जीवन के परिपेक्ष्य में इस कला की उपयोगिता की बात की जाय तो ये हमें परिस्तिथि के अनुरूप ढलने और किसी भी समस्या को पूर्ण सयंम के साथ कठिनाइयों से जूझने की कला भी सीखती है। कहते है ना कि 'करत-करत अभ्यास जड़मति होत सुजान', इसी तर्ज़ पर यदि इस कला को भी अभ्यास हम लगातार अपने शैक्षणिक जीवन के साथ-ही-साथ अपने व्यवहारिक जीवन में करते रहे तो ये हमें एक अच्छे और आत्मविश्वासी इंसान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
                    इस कला की नींव या मूलभूत आधार की बात की जाये तो वो है- शैक्षणिक जीवन में अच्छी का चयन और व्यवहारिक जीवन में अच्छे लोगों की संगत। ये दो ऐसे मूलाधार है जिसपर इस कला की एक सुदृण नींव रखी जाती है।

स्वाती सिंह