बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

शहीद भगतसिंह : दास्ताँ एक संघर्षरत व्यक्तित्व की।

मौत के नाम अच्छे-अच्छे लोगों की रूहें काँप उठती है, लेकिन उनके व्यक्तित्व में एक अलग ही तेज़ था। मौत को अपने सामने देखकर न तो उन्हें ज़रा भी डर लगा और न एक पल को उनकी जुबान लड़खड़ाई। बस अपनी गर्वीली आवाज़ में वे ये गुनगुनाते फांसी पर झूल गए-

      'दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफ़त, 

      मेरी मिट्टी से भी खुश्बू-ए-वतन आएगी,   
      सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,   
   देखना है जोर कितना बाजूए कातिल में है।'


भारतभूमि की आज़ाद जमीं का इतिहास जिन अमर शहीदों के रक्त के लिखा गया उनमें से एक है भगतसिंह। शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार को उस वक़्त करारी शिकस्त देने वाले भगतसिंह आज भी सभी युवाओं के लिए आदर्श है।

भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। वे एक सिख परिवार से थे। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने भगतसिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला। नतीजतन लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगतसिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की। काकोरी कांड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित चार क्रांतिकारियों को फांसी और सोलह लोगों को जेल की सजाओं से भगतसिंह इतने अधिक उग्र हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोशिएशन से जुड़ गए और एक नया नाम दिया हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था।भगतसिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 10 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज अधिकारी जे.पी. सांडर्स को मारा था। इस कार्यवाही में क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगतसिंह ने वर्तमान नई दिल्ली के ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1921 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर उन दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।जेल में भगतसिंह ने करीब दो साल गुजारे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्य्यन बराबर जारी रहा।उन्होंने जेल में अंग्रेजी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ? 23 मार्च 1931 को भगतसिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।फांसी के बाद कहीं कोई आंदोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये वहां घी के बदले मिटटी का तेल डालकर ही उन्हें जला दिया गया। गांव वालों ने फिर उनके मृत शरीर का अंतिम संस्कार किया।


इस तरह आज़ादी की लड़ाई से अग्नि की तरह तेज़, हवा की तरह रफ़्तार और पर्वत की व्यक्तित्व में ठहराव वाले क्रांतिकारी भगतसिंह ने दुनिया से विदा ली। उन्होंने इस दुनिया से तो विदा ले लिया, लेकिन आज भी वो देश के हर युवक के आदर्श के रूप में कायम है। भगतसिंह का नाम इन दिनों एकबार फिर अख़बारों में चर्चा का विषय बन चुका है। लाहौर की अदालत में सांडर्स हत्याकांड में शहीद भगतसिंह की बेगुनाही साबित करने के लिए सुनवाई बीते 10 फ़रवरी से शुरू हो चुकी है।

लाहौर के अनारकली पुलिस स्टेशन के अफसर ने बताया कि सांडर्स हत्याकांड की एफआईआर उर्दू में है। इसमें सिर्फ दो बंदूकधारियों का जिक्र है। भगतसिंह के नाम का कहीं जिक्र नहीं है। साल 2013 में भगतसिंह मेमोरियल फाउंडेशन के प्रमुख इम्तियाज़ राशिद कुरैशी ने लाहौर हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसमें उन्होंने अदालत को बताया था कि शहीद भगतसिंह बेगुनाह थे और उन्हें गैर-क़ानूनी तरीके से फांसी दी गयी। अब इस बात में कितनी सच्चाई है? इस सवाल का जवाब कब तक मिलेगा? इसका फैसला वक़्त करेगा।

स्वाती सिंह

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