पेशेवर क्रांतिकारी आपको आये दिन अपने स्वार्थानुसार मुद्दे
के आगे ‘आज़ादी’ जोड़कर नारे लगाते मिलेंगे. इन नारों के साथ होता है खुद के बनाये
इनके संगठनों का नाम, जो इन नारों के प्रायोजक होते है. जिसे देखकर आज़ादी एक ऐसे
चने की तरह लगने लगती है, जिसे ये सभी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए भुना रहे है.
भारत में आज़ादी का इतिहास सदियों पुराना है. रजवाड़ों के समय से ही हर सल्लतनत
दूसरी सल्लतनत से आज़ादी के लिए युद्ध करती रही है. जैसे-जैसे समय बदला; लोग बदले, समाज
बदला और युद्ध का तरीका बदला. पर इन सबमें एक चीज़ कायम रही - वो है आज़ादी की मांग.
यूँ तो भारत में साल 1947 के बाद से अब तक आज़ादी के लिए खून की नदियाँ बहती नहीं
दिखाई पड़ती. लेकिन हां जाने-अनजाने में शहादत का दौर आज भी जारी है. ऑनर किलिंग या
फिर पितृसत्तामक सोच के खिलाफ़ लड़ते हुए बलात्कार, एसिड अटैक और दहेज हत्या जैसे
तमाम कई रूप में.
भारत की सरजमीं ने आज़ादी के नाम पर सदियों से संघर्ष देखे हैं. शायद ही समाज
का कोई ऐसा वर्ग बचा होगा जिसने अपने स्वार्थ के आगे ‘आज़ादी’ को जोड़कर हुंकार न
भरी हो. इसमें वे कई बार सफल भी हुए. लेकिन इस मांग की पूर्ति के बाद भी उनकी सूरत
में किसी ख़ास सुधार की झलक दिखाई नहीं पड़ती है. अगर ‘आज़ादी’ के नाम पर हुए संघर्षों
के इतिहास का अध्ययन किया जाये तो हमें मालूम होगा कि आखिर क्यों आज़ादी के बाद भी
समाज अपनी सूरत नहीं सुधार पाया. जिसका जवाब है – आज़ादी के बाद प्रभावी नीति का अभाव.
हाल ही में, देश एक बार फिर इसी आज़ादी की मांग पर उमड़ते बादलों की साक्षी बना -
जेएनयू मामले के जरिए. इसके साथ ही, आये दिन हम अखबारों और न्यूज़ चैनलों में आज़ादी
के नाम पर जनता की गर्जन सुनते रहते है. नारे लगाये जाते है – ‘हमें चाहिए बेख़ौफ़
आज़ादी.....!’, ‘बोल की लब आज़ाद है तेरे....!’ और भी न जाने क्या-क्या. अब सवाल
यहां आज़ादी के बाद की तस्वीर का है. जिसका पूरा श्रेय देश में जनसंख्या के साथ
बढ़ती पेशेवर क्रांतिकारियों की तादाद को जाता है. ये पेशेवर आपको आये दिन अपने
स्वार्थानुसार मुद्दे के आगे ‘आज़ादी’ जोड़कर नारे लगाते मिलेंगे. इन नारों के साथ होता
है खुद के बनाये इनके संगठनों का नाम, जो इन नारों के प्रायोजक होते है. जिसे देखकर
आज़ादी एक ऐसे चने की तरह लगने लगती है, जिसे ये सभी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए भुना
रहे है.
इन पेशेवर क्रांतिकारियों के लिए ‘विरोध’ सबसे सस्ता या यूँ कहें इनके फैशन
में है. वर्तमान में जो भी स्थिति हो, बस उनका विरोध करो. लीजिये बन गए आप – ‘क्रांतिकारी’
( ये परिभाषा भी आज के फैशन में है).
अब इसमें फ़ैसला उनके समर्थकों को करना
होगा कि वो जिन्हें अपना नेता मानकर उनके पीछे खड़े होते है और वक़्त पड़ने पर डंडे तक
खाते है, तो क्या उनका समर्थन सही दिशा में है? या फिर वे पेशेवरों के प्रायोजकों
की बिक्री बढ़ाने के साधन के तौर पर इस्तेमाल किये जा रहे है. जिनका उद्देश्य लाइम-लाइट
में आना यूँ कहें दूसरों पर अपनी धाक जमाना है. पेशेवर क्रांतिकारी देश में बिचौलियों
की तरह काम कर रहे है, अगर इनपर जल्द नकेल नहीं कसी गयी तो ‘आज़ादी’ और ‘परिवर्तन’ की
परिभाषा इनके ऊंचे दामों पर बिकने मात्र तक सीमित रह जायेगी. इसके साथ ही, हमें
खुद की ऐसी तार्किक सोच भी विकसित करनी होगी जहां हम अपनी आज़ादी और विकास के
मानकों को निर्धारित कर सकें.
स्वाती सिंह
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