मंगलवार, 27 सितंबर 2016

पितृसत्ता से कितनी आजाद हैं महिलाएं?

पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में, आज मैं आजाद हूं दुनिया के गगन में............1956 में आई फिल्म चोरी-चोरी का यह गीत स्त्री अस्तित्व की पहचान का गीत है, जिसमें नायिका पितृसत्ता को ललकारती हुई सभी बंधनों से मुक्त हो जाना चाहती है। आज छह दशक बाद न्यूज-चैनलों, पत्रिकाओं, अखबारों और संगोष्ठियों में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द पितृसत्ताको सुनते ही अगर आपके मन में इसके अर्थ और तात्पर्य को लेकर सवाल कौंधने लगता है, तो यह लेख आपके लिए है। अक्सर हम अपनी बातों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जिनके वास्तविक अर्थ से हम अच्छी तरह वाकिफ नहीं होते। 



  नारी-सशक्तीकरण के इस दौर में पितृसत्ताएक ऐसा शब्द है, जिसके निहितार्थ को समझना आज के दौर की युवतियों को समझना जरूरी है। दरअसल, यह बहेलिये के उस जाल की तरह है, जिसमें चिड़िया जरूर फंसती है। और फिर कभी निकल नहीं पातीं। मगर पितृसत्ता का जाल तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है, जिसमें औरतें ताउम्र कैद रहती हैं। कभी परिवार की मर्यादा के नाम पर, तो कभी समाज का भय दिखा कर, तो कभी उसे पुरुषों से कमजोर बता कर। यह कुल मिला कर नारी को पहले पिता और भाई फिर पति और अंत में बेटे के अधीन बना कर उसकी इच्छाओं-सपनों और अधिकारों को कुचलने का सदिया पुराना कुचक्र है। जिससे आज तक नहीं तोड़ सकी हैं भारतीय महिलाएं। 
 
हमारे समाज में कई तरह की असमानताएं हैं। स्त्री और पुरुष के बीच असमानता भी उन में से एक है। आम तौर पर पितृसत्ता का प्रयोग इसी असमानता को बनाए रखने के लिए होता है। नारीवादी अध्ययन का एक नया क्षेत्र है। इसलिए नारीवादी विमर्श का पहला काम यही है कि महिलाओं को अधीन करने वाली जटिलताओं और दांवपेच को पहचाना जाए और उसे एक उचित नाम दिया जाए। बीसवीं सदी के आठवें दशक के मध्य से नारीवादी विशेषज्ञों ने पितृसत्ताशब्द का प्रयोग किया। 

    

 क्या है पितृसत्ता? 



   पितृसत्ता अंग्रेजी के पैट्रियार्की (Patriarchy) का हिंदी समानार्थी है। अंग्रेजी में यह शब्द यूनानी शब्दों पैटर (Pater)  और आर्के (Arch)  को जोड़ कर बनाया गया है। पैटर का अर्थ पिता और आर्के का अर्थ शासन होता है। इस तरह पैट्रियार्की का शाब्दिक अर्थ है-पिता का शासन। पितृसत्ता जिसके जरिए अब संस्थाओं के एक खास समूह को पहचाना जाता है, इसे सामाजिक संरचना और क्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें पुरुषों का वर्चस्व रहता है और वे महिलाओं का निरंतर शोषण और उत्पीड़न करते है।’ 
   
पितृसत्ता को एक व्यवस्था के रूप में देखना बेहद जरूरी है क्योंकि इससे पुरुष और स्त्री के बीच शक्ति व हैसियत में असमानता के लिए जैविक निर्धारणवाद के मत को खारिज करने में सहायता मिलती है। इसके साथ ही, यह भी स्पष्ट होता है कि स्त्री या पुरुष का वर्चस्व कोई व्यक्तिगत घटना नहीं, बल्कि यह एक व्यापक संरचना का अंग है। 

     

क्या महिलाएं बपौती हैं


  गर्डा लर्नर पितृसत्ता को परिभाषित करते हुए कहती हैं कि पितृसत्ता, परिवार में महिलाओं और बच्चों पर पुरुषों के वर्चस्व की अभिव्यक्ति है। यह संस्थागतकरण व सामान्य रूप से महिलाओं पर पुरुषों के सामाजिक वर्चस्व का विस्तार है। इसका अभिप्राय है कि पुरुषों का समाज के सभी महत्त्वपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण है। महिलाएं ऐसी सत्ता तक अपनी पहुंच से वंचित रहती है।वे यह भी कहती हैं कि इसका यह अर्थ नहीं है कि महिलाएं या तो पूरी तरह शक्तिहीन हैं या पूरी तरह अधिकारों, प्रभाव और संसाधनों से वंचित हैं।इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हर पुरुष हमेशा वर्चस्व की और हर महिला हमेशा अधीनता की स्थिति में ही रहती है बल्कि जरूरी बात यह है कि इस व्यवस्था, जिसे हमने पितृसत्ता का नाम दिया है, के तहत यह विचारधारा प्रभावी रहती है कि पुरुष स्त्रियों से अधिक श्रेष्ठ हैं और महिलाओं पर उनका नियंत्रण है और होना चाहिए। यहां महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के रूप में देखा जाता है।  


     महिलाओं की मुखरता से डरते हैं पुरुष 


  यह सत्तर के दशक की बात है, जब अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध में और नागरिक अधिकारों के लिए छेड़े गए आंदोलनों में महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था। उन महिलाओं ने पाया कि आंदोलन में शांति, न्याय और समानता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले साथी पुरुषों का उनके प्रति जो व्यवहार है, वह आम पुरुषों से अलग है। यह वे महिलाएं थीं जो अपने लिए निर्धारित कर दी गर्इं पारंपरिक भूमिकाओं के दायरों में सीमित नहीं रहना चाहती थीं। वे यौन-नैतिकता से संबंधित रूढ़ियों को उखाड़ फेंकने की बात कर रहीं थीं, पर उनकी मुखरता पुरुषों को हजम नहीं हो पा रही थी। वे न केवल युद्ध से परे कर दी गर्इं बल्कि वियतमान-युद्ध विरोधी मुहिम का झंडा थामे संगठन के नेतृत्व ने उनसे कहा कि आंदोलन में स्त्रियों को पुरुषों के पीछे रहना चाहिए। वहां के कड़वे अनुभवों से वे इस नतीजे पर पहुंचीं कि घर हो या बाहर, पुरुष शोषक और स्त्रियां शोषित के रूप में है। कोई दो राय नहीं कि महिलाओं की मुखरता से पुरुष आज भी डरते हैं। 

    पहला नियंत्रण प्रजनन पर



   पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उनकी प्रजनन क्षमता है। गर्डा लर्नर के अनुसार, महिलाओं के अधीनीकरण की तह में यह सबसे प्रमुख कारण है। स्त्री की प्रजनन क्षमता को शुरू-शुरू में कबीले का संसाधन माना जाता था, जिससे वह स्त्री जुड़ी होती थी। बाद में जब अभिजात शासक वर्गों का उदय हुआ, तो यह शासक समूह के वंश की संपत्ति बन गई। सघन कृषि के विकास के साथ, मानव श्रम का शोषण और महिलाओं का यौन-नियंत्रण एक-दूसरे से जुड़ गए। इस तरह स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण की आवश्यकता पैदा हुई। यह नियंत्रण निजी संपत्ति के उदय और वर्ग आधारित शोषण के विकास के साथ तेज होता चला गया। यह दौर भी बदला नहीं। आज भी ग्रामीण परिवेश में वंश को चलाने के लिए नारी को प्रजनन का साधन भर ही माना जाता है। आधुनिक समाज भी इस विचार से अछूता नहीं।  

      
      श्रमशक्ति को भी नहीं बख्शा



   पितृसत्ता में स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के अलावा उसकी उत्पादकता या श्रमशक्ति पर भी नियंत्रण कर लिया जाता है। घर के भीतर और बाहर स्त्रियों पर पुरुषों का अधिकार रहता है और यह फैसला भी उन्हीं के हाथ में रहता है कि महिलाएं घर के बाहर जाकर कहां काम करेंगी। या फिर करेंगी भी या नहीं। जीवन में क्या करना है? किस स्कूल-कालेज में कहां तक पढ़ना है और किस क्षेत्र मे करियर बनाना है या किस के साथ जीना या मरना है? सब कुछ पितृसत्ता से तय होता है। इस स्थिति में श्रमशक्ति पर खुद के नियंत्रण के लिए महिलाओं का आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है, इसे बखूबी समझा जा सकता है।   

   

  विचारधारा का खेल है पितृसत्ता 


विचारधारा के तौर पर पितृसत्ता व्यवस्था के दो पहलू हैं : एक, यह सहमति बनाती है और महिलाओं के पितृसत्ता के बने रहने में मददकरती हैं। सहयोगया मिलीभगतको सहमति के रूप में कई तरीकों से हासिल किया जाता रहा है। दूसरा. उत्पादक संसाधनों तक पहुंच का न होना और परिवार के पुरुष मुखिया पर आर्थिक-निर्भरता, इस तरह सहयोग या सहमति एक तरह से उगलवा ली जाती थी, न कि स्वेच्छा से दी जाती थी। इसलिए यह समझा जाना चाहिए कि पितृसत्ता महज वैचारिक व्यवस्था नहीं है बल्कि उसका एक भौतिक आधार भी है। 

 इस तरह, चारों तरफ से दबाव डाल कर महिलाओं से उनका सहयोग हासिल करना आसान हो जाता है। क्योंकि जब वे इस व्यवस्था का अनुकरण करने लगती हैं, तो उन्हें न केवल वर्गीय सुविधाएं मिलने लगती हैं, बल्कि उन्हें मां-सम्मान तमगों से भी नवाजा जाता है। और जो महिलाएं पितृसत्ता के कायदे-कानूनों व तौर-तरीकों को अपना सहयोग या सहमति नहीं देती हैं, उन्हें पथभ्रष्ट करार दे दिया जाता है। उन्हें बेहया और कुलटा तक कहा जाने लगता है। इसके साथ ही, उन्हें पुरुषों के भौतिक संसाधनों के उपभोग से बेदखल भी किया जाता है।
 
दशकों के नारी विमर्श और आंदोलनों के बाद देर से ही सही, यह भयावह कुचक्र सामने आ गया है। और आधुनिक दौर की नारियां पितृसत्ता के इस जाल को तोड़ कर आजाद हो रही हैं। वे उस आसमान को छू रही हैं, जहां कई बार पुरुष भी पहुंच नहीं पाते। 


स्वाती सिंह 

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