भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास जिन अमर शहीदों के लहू से लिखा गया, उनमें देश की आधी आबादी ने भी अपना योगदान दिया था। दुर्भाग्य से उनमें से ज्यादातर को भुला दिया गया| चंद महिला स्वाधीनता सेनानियों की ही चर्चा इतिहास के पन्नों और स्कूली पाठ्यक्रमों में होती है। मगर इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर जिन गुमनाम महिलाओं ने सहयोग और समर्थन दिया, उनका तो कहीं जिक्र नहीं मिलता। फिलहाल, यहां चर्चा उन महिला स्वतंत्रता सेनानियों की, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपनी अमिट छाप छोड़ी।
वो
थीं 1942
की झांसी की रानी : अरुणा आसफ अली
अरुणा
आसफ अली का जन्म 1909
में एक बंगाली परिवार में हुआ। उन्होंने 1930 के
नमक सत्याग्रह से स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा। गांधी-इरविन संधि के कुछ महीनों
बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद 1941 में
अरुणा को फिर से व्यक्तिगत सत्याग्रह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। जब सभी
प्रमुख नेताओं को 8 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया, तब 9 अगस्त, 1942 को गोवालिया
टैंक मैदान में तिरंगा फहराने वाली वह पहली शख्सियत थी। 26 सितंबर,
1942 को उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें अपनी सभी चीजें
वापस पाने के लिए आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया। जब उन्होंने इनकार कर दिया,
तो उनके सभी सामान बेच दिए गए।
अरुणा
आसफ अली ने राममनोहर लोहिया के साथ मिल कर लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए ‘इंकलाब
पत्र’ मुहिम की शुरुआत की। इसका परिणाम यह हुआ कि कई सरकारी
कर्मचारी अपनी नौकरी छोड़ कर और हजारों की संख्या में छात्र अपनी पढ़ाई छोड़ कर
स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े और इसका नेतृत्व अरुणा ने किया। उन्हें ‘1942 की झांसी की रानी’ पुकारा जाने लगा। अरुणा
आसफ अली दिल्ली नगर निगम की पहली महिला महापौर भी बनीं। उन्होंने ‘लिंक एंड
पेट्रियट’ नाम से पत्रिका भी निकाली, जिससे
उनके कार्यों को मान्यता मिली। अरुणा जी को कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय
पुरस्कारों से भी नवाजा गया।
स्वतंत्र
भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री : सुचेता कृपलानी
सुचेता
कृपलानी का जन्म 1908
में अंबाला में हुआ। लाहौर में प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने एमए
की डिग्री दिल्ली विश्विद्यालय से ली। बचपन से ही उन्होंने स्वतंत्र भारत में रहने
का सपना देखा था। उन्होंने 1932 में, सार्वजनिक
सेवाओं में प्रवेश किया और 1939 में राजनीति में शामिल
हुर्इं। जनसेवा के उनके कार्यों से प्रभावित होकर 1940 में
गांधीजी ने उन्हें व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए चुना। इसके लिए उन्हें गिरफ्तारी तक
देनी पड़ी।
सुचेता
ने 1942-43
में भूमिगत होकर अपना कार्य जारी रखा। उन्होंने आल इंडिया महिला
कांग्रेस की नींव रखी, जिसका काम महिलाओं को देश के वास्ते
संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना था। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए उन्होंने 1942
में एक ‘भूमिगत स्वयंसेवक बल’ का भी गठन किया। इससे महिलाओं को ड्रिल, हथियार
संचालन, प्राथमिक उपचार और आत्मरक्षा तकनीकों में प्रशिक्षित
किया जाता था। दो साल बाद 1944 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया
गया।
जेल
से बाहर आने पर 1945
में सुचेताजी ने अपना अधिकतर समय समाज-कार्यों के लिए समर्पित का
दिया। उन्होंने 1946 में पूर्वी बंगाल में सांप्रदायिक दंगों
और 1947 में पंजाब दंगों की पीड़ित महिलाओं को शरण दी। वे
मार्च 1963 से मार्च 1967 तक
उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। वे स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री
थीं।
वह नन्हीं परी एक दिन बनी दुर्गा : दुर्गा भाभी
इलाहाबाद
कलक्ट्रेट के नाज़िर पंडित बांके बिहारी नागर के घर 7 अक्तूबर 1907 को उनकी नन्हीं परी दुर्गावती का जन्म हुआ। दुर्गा ने साल 1918 में पांचवी कक्षा पास की और उसी साल उनका विवाह आगरा में रहने वाले भगवती
चरण वोहरा से कर दिया गया। शुरुआती दिनों में दुर्गा एक स्थान से दूसरे स्थान तक
सूचनाएं पहुंचाने का काम करती थीं। 16 नवंबर 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभा ने भाषण का आयोजन किया, जहां वह सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आर्इं। दुर्गावती
ने 17
दिसंबर 1928 को भगत सिंह और सुखदेव ने सांडर्स
की हत्या की। हत्या के बाद ब्रिटिश पुलिस उनकी खोज में जुट गई। जिसके बाद ये दोनों
दुर्गावती के पास पहुंचे और उन्होंने बड़ी सतर्कता से भगत और सुखदेव को सुरक्षित
कलकत्ता पहुंचाने की योजना बनाई। नौ अक्तूबर 1930 को दुर्गा
भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चला दी, जिसमें गवर्नर तो बच
गया पर सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी
ने गोली मारी थी। जिसके बाद से अंग्रेज सरकार उनकी तलाश कर रही थी।
इसके
बाद दुर्गा भाभी लाहौर चली गईं, जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तीन साल
तक नजरबंद रखा। फरारी, गिरफ्तारी और रिहाई का यह सिलसिला 1931
से 1935 तक चलता रहा। अंत में लाहौर से जिला बदर
किए जाने के बाद दुर्गा भाभी 1935 में गाजियाबाद स्थित
प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगीं। कुछ समय बाद फिर
दिल्ली चली गर्इं और कांग्रेस के लिए काम करने लगीं। मगर कांग्रेस रास न आने के पर
उन्होंने इसे 1937 में छोड़ दिया। साल 1939
में इन्होंने मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से प्रशिक्षण लिया और 1940
में लखनऊ में कैंट रोड के एक मकान में पांच बच्चों के साथ मांटेसरी
स्कूल खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता
है। 14 अक्तूबर, 1999 को दुर्गा भाभी
ने गाजियाबाद में अंतिम सांस ली।
उन्हें
आजादी के नाम मिली उम्रकैद : कल्पना दत्त
कल्पना
दत्त बंगाल में उच्च-शिक्षा ले रही थीं। उन्हें अंग्रेजी शासन और उनकी भाषा से बैर
था। वे स्कूल की प्रतिज्ञा तक को बदलना चाहती थीं, इसे वह ‘परमेश्वर और राजा के प्रति वफादार होने’ के स्थान पर
‘परमेश्वर और देश के प्रति वफादार होना’ करना चाहती थीं। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद कल्पना ने कलकत्ता
विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया, जहां उन्होंने लाठी और
तलवार चलाना भी सीखा।
कल्पना
दत्त 1929
में क्रांतिकारियों के संपर्क में आर्इं, लेकिन
1932 के बाद ही उन्होंने क्रांतिकारी टीम में शामिल होने और सक्रिय रूप से आजादी के लिए लड़ने का निश्चय किया। उन्होंने पुरुषों
के कपड़े पहन कर अपनी पहचान बदली और सरकारी इमारतों पर छापे मारे। पुलिस को शक हो गया कि वे क्रांतिकारी दल की सदस्य हैं।
पुलिस
उन पर नजर तो रखती थी,
पर उनके खिलाफ कोई सबूत जुटाने में विफल रहती। जब पहाड़तली क्लब पर
छापा मारा गया, तब पुलिस को यकीन हो गया कि वे क्रांतिकारी
समूह की ही हिस्सा हैं। मौका मिलते ही धारा 109 के तहत मामला
दर्ज कर कल्पना दत्त को जेल भेज दिया गया, पर सबूतों के अभाव
में उन्हें जमानत मिल गई। इसके बाद वह फरार रहीं। हालांकि तीन महीने बाद ही उन्हें
पकड़ लिया गया और चटगांव शस्त्रागार पर छापे मामले में मामला दर्ज कर उन्हें आजीवन
कारावास की सजा सुनाई गई। 1942 में वह जेल से रिहा हुर्इं,
तो वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गई और 1943 में कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी से शादी कर ली।
नागालैंड
की थी वो लक्ष्मी बाई : रानी गाइंडिनेल्यू
रानी
गाइंडिनेल्यू को नागालैंड की ‘लक्ष्मी बाई’ के रूप में जाना जाता है। महज 13 साल की उम्र में
उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने का फैसला किया था। जब वह 16 साल की थीं, तब उन्होंने केवल चार सशस्त्र नगा
सैनिकों के साथ मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, वह
छापेमार युद्ध और हथियार संचालन में निपुण थीं। देखते ही देखते रानी गाइंडिनेल्यू
नेता के रूप में उभरीं। उन्हें 1932 में गिरफ्तार कर लिया
गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। भारत की आज़ादी के बाद जब वह जेल से
बाहर आर्इं तब उनकी उम्र 30 वर्ष थी। उनकी बहादुरी के लिए
पंडित नेहरू ने उन्हें ‘रानी’ कह कर
पुकारा था। स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी भूमिका के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित
किया गया।
देश
की पहली महिला शिक्षिका : सावित्रीबाई फुले
तीन
जनवरी,
1831 में दलित परिवार में जन्मीं सावित्रीबाई ने कभी भी इन बाधाओं
के आगे घुटने नहीं टेके। जब वह सिर्फ नौ साल की थीं, तो उनका
विवाह ज्योतिबाराव फुले के साथ कर दिया गया। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन
की तरह जिया। जिसका एक ही उद्देश्य था - समाज में शिक्षा का प्रसार करते हुए,
समानता के आधार पर लोगों को विकास की दिशा में आगे बढ़ाना। उस दौर
में यह बहुत जोखिम भरा काम था। क्योंकि उस समय का हमारा समाज इस बात की इजाजत नहीं
देता था कि दलित-आदिवासी और स्त्री समाज शिक्षित हो, पर सावित्रीबाई
ने हार न मानते हुए अपना संघर्ष जारी रखा।
एक
जनवरी 1848
से लेकर 15 मार्च 1852 के
दौरान उन्होंने अपने पति के साथ मिल कर बिना किसी आर्थिक मदद के लड़कियों के लिए 18
स्कूल खोले। इससे पहले समाज में और शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे
क्रांतिकारी काम किसी और ने नहीं किए थे। सावित्रीबाई न केवल देश की पहली शिक्षिका
और प्रधानाचार्य बनीं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज में
स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में भी कई परिवर्तनकारी काम किए। उन्होंने 1852
में ‘महिला मंडल’ का गठन
किया। इस मंडल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों
पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया। इसके साथ ही,
भारत का पहला ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’
भी खोला। सावित्रीबाई
ने एक विधवा काशीबाई को आत्महत्या करने से रोक कर उसके बच्चे यशवंत को दत्तक पुत्र
के रूप में अपनाया। उसे पढ़ा-लिखा कर डाक्टर बनाया। इतना ही नहीं बड़ा होने पर उसका
अंतरजातीय विवाह किया। यह महाराष्ट्र का पहला अंतरजातीय विवाह था। 10 मार्च 1897
को प्लेग की वजह से सावित्रीबाई का निधन हो गया।
गोली
से मौत नहीं,
कुर्बानी को दी मंजूरी : प्रीतिलता
वाडेकर
प्रीतिलता
वाडेकर का जन्म मई 1911
में चटगांव में हुआ। वह एक होनहार छात्रा थीं और अपनी स्कूली शिक्षा
पूरी करने के बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए पास किया। उसके बाद उनका
प्रशिक्षण लीला नाग के दीपाली संघ और कल्याण दास के छात्र संघ में हुआ, जिसके बाद वह नेता सूर्यसेन की क्रांतिकारी दल का हिस्सा हन गईं। पुलिस से
सामना होने पर अपने साथियों की हत्या का बदला लेने के लिए उन्होंने अपने नेता
सूर्यसेन के साथ मिल कर अंग्रेज और यूरोपीय लोगों से भरे रहने वाले एक नाइट क्लब
पर हमला करने की साज़िश रची।
प्रीतिलता
ने 24
सितंबर, 1932 में अन्य सदस्यों के साथ मिल कर
क्लब पर हमला किया। अंग्रेजों की जवाबी कार्रवाई में बंदूक की एक गोली उन्हें लग
गई। उन्हें लगा कि अब उनका बचना नामुमकिन है, तो उन्होंने
अपनी योजना के मुताबिक पुलिस की गोली से मरने के बजाए अपनी जेब से पोटेशियम
सायनाइट का एक पैकेट खाकर अपनी कुर्बानी देना बेहतर समझा। मगर इतनी कम उम्र में
देश के लिए कुर्बानी देने वालीं प्रीतिलता को आज कौन याद करता है?
भारतीयता की एक महान पुजारिन : भीकाजी कामा
भीकाजी
न तो कोई क्रांतिकारी परिवार से थीं और न ही किन्हीं हालातों से मजबूर होकर वे
क्रांतिकारी बनीं। चौबीस सितंबर, 1861 में बंबई के एक धनी पारसी परिवार में
जन्मीं भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक भीकाजी स्वभाव से समाजसेवी थीं। भीकाजी को
यूं तो कभी भी जीवन-संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन वे
ब्रिटिश साम्राज्य से देश को आजाद करवाने की लड़ाई में आजीवन शामिल रहीं।
इंग्लैंड
में वह 'भारतीय होमरूल समिति' की सदस्य बनीं। मैडम कामा ने
लंदन में पुस्तक प्रकाशन का काम भी शुरू किया। वीर सावरकर की पुस्तक ‘1857 चा स्वातंर्त्र्य लढा’ (1857 का स्वतंत्रता संग्राम)
प्रकाशित करने में उन्होंने सहायता की। मैडम कामा ने 1905 में
अपने सहयोगी विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा की मदद से भारत के ध्वज
का पहला डिजाइन तैयार किया।
जर्मनी
के स्ट्रटगार्ड में 1907
में ‘अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी परिषद’ की बैठक बुलाई गई। इसमें कई देशों के प्रतिनिधि आए थे। उस परिषद में मैडम
भीकाजी कामा ने साड़ी पहन कर और भारतीय झंडा हाथ में लेकर लोगों को भारत के बारे
में जानकारी दी। इसके बाद उन्हें ‘क्रांति-प्रसूता’ कहा जाने लगा।
भीकाजी
कामा अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचारपत्र ‘वंदे मातरम’ और ‘तलवार’ के माध्यम से लोगों
तक पहुंचाती थीं। यूरोपीय पत्रकार उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन कह
कर बुलाते थे। वृद्धावस्था में भीकाजी कामा भारत लौटीं और 13 अगस्त, 1936 को बंबई में गुमनामी की हालत में उनका
देहांत हो गया।
स्वाती सिंह
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