शनिवार, 5 नवंबर 2016

और आडंबर के भेंट चढ़ जाती है औरत की ‘सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा’

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सदियों से इंसानों के बीच औरतों की हैसियत दोयम दर्जे की बनी हुई है। ऐसे में उनकी महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर अक्सर यह सवाल जेहन में आता है कि क्या मनुष्य-मात्र की सामान्य आकांक्षाएं ही उसकी सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा नहीं बन जाती? तो जवाब आता है- हां। अब यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते की तमाम गुलाबजामुनी दुहाइयों के बावजूद, वास्तविकता यही है कि औरत की महत्त्वाकांक्षा जितनी बड़ी और उसे हासिल करने की ललक जितनी तेज होती है, सामाजिक रूप से उसे दबाने की कोशिश भी उतनी ही तल्खी से होती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम निषेधों से मनुष्य के नैतिक  अस्तित्व को तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, उसके मन के रेशों को उधेड़ा नहीं जा सकता। 


घर की दहलीज और सामाजिक प्रतिबंध की बेड़ियों में आप औरतों को लाख जकड़ कर रखें, उसके मन के आदिम चरवाहेको उस शाश्वत यायावरको, जो हर इंसान के अंदर गति और ऊर्जा का आंतरिक स्रोत बन कर बैठा होता है- खुले आकाश और फैली हुई धरती पर अपना दावा पेश करने से नहीं रोक सकते। यों भी  औरतों का वजूद पुरुषों से कोई अलग वहीं है। तन से परे भी उसकी दुनिया है। उसके मन की उड़ान की थाह लेना आसान नहीं।   

 


और वो कहती है मुझे हक है...!


हर इंसान की तरह औरत भी यह दावा पेश करती है- और कामना करती है सौ बसंत जीने की, जीवन को हंसी और आंसू के सौ-सौ इंद्रधनुषी रंगों से सजाने की, विचार और कर्म के सौ-सौ रूपहले सूत्रों से जोड़ कर उसे ज्यादा-से-ज्यादा अर्थवान बनाने की। हर इंसान की तरह वह भी चाहती है कि उसे अपना फैसला खुद करने की आजादी हो। समाज की हर प्रक्रिया में उसकी बराबरी ही हिस्सेदारी हो। अधिकारों की समानता और व्यवहार के खुलेपन के साथ वह स्वस्थ सामाजिक संबंधों की दुनिया में प्रवेश करे -और उसे प्रेम, सौंदर्य और संवेदना के घिरे मानवीय स्पर्श से संवारा जाए। समाज में उसका एक विशिष्ट स्थान हो - एक संपूर्ण व्यक्तित्व हो, जिसे तमाम लोग स्वीकार करें और जिसके सम्मान में हैट्स ऑफ़करना फख्र की बात समझी जाए। इन्हीं कामनाओं को मुकम्मल तस्वीर देते हुए वो अक्सर कहती है - मुझे भी तो हक है औरों की तरह।


 लेकिन हम उन्हें क्या देते हैं.....!


यही तो होती है एक औरत की महत्त्वाकांक्षा। मगर, हम उसे बदले में देते क्या हैं? जी हां, हम- जो कुल की नाक ऊंची रखने के लिए औरत को हजार वर्जनाओं से घेर कर रखते हैं और पौरुष के नपुंसक प्रदर्शन के लिए सारी वर्जनाएं तोड़ कर उसे भोगते हैं - हम उसकी सीधी-सरल महत्त्वाकांक्षाओं का बदला क्या चुकाते हैं? कुछ भी तो नहीं, सिवाय अपेक्षाओं के या अपने स्वार्थ को पूरा करने का साधन बनाने के । 


 उनके अनचाहे होने का एहसास 


हमारे घरों में लड़की हमेशा एक अनचाही बला की तरह पैदा होती है, जिसकी आकांक्षाओं को विकसित के बजाय, नियंत्रित करने की कोशिशें जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। हम उसके जीवन की गति के लिए रास्ते नहीं खोलते, ताउम्र उसे बांधे रखने के लिए चौहदियां निश्चित करते हैं। हम उसे करने योग्य कामोंका नफीस गुलदस्ता दिखा कर उत्साहित नहीं करते, ‘न करने योग्य कामोंकी डरावनी तस्वीर दिखा कर धमकाते हैं। हम उसे निर्णायक नहीं, निर्णयों का वाहक बनाते हैं, व्यक्तित्व-निर्माण की सामाजिक प्रक्रिया से नहीं जोड़ते,‘कुलवधूबनने के वे घरेलू नुस्खे सिखाते हैं, जिनके बल पर वह परिवार के अंदर गृहदासी और देवदासीके दायित्व एक ही साथ निभा सकती है।

 ‘इज्जतनाम का वो कंटीला जामा 


शील-शुचिता-कौमार्य के तमाम मिथकीय उपदेश, ऊंची तालीम, तहजीब और रहन-सहन के बेहतर-से-बेहतर शउर और यहां तक कि उसकी कथित आर्थिक आत्मनिर्भरता’ के चालू दावे भी - उसे सामाजिक नजरबंदीके इस दुष्चक्र से बाहर नहीं निकलने देते और इस तरह वह नैतिक कत्लगाह तैयार होता है, जो औरत के सारे ओज और उत्ताप को सोख लेता है और उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को रेत-रेत कर खत्म कर देता है। इसके बाद बची रहती है सिर्फ एक यातनाप्रद कुंठा, जो भीतर-ही-भीतर उसके व्यक्तित्व को काटती, कुतरती और खोखला बनाती चली जाती है....।

पर वो हार नहीं मानती


लेकिन, हर इंसान की तरह औरत भी किसी चलती प्रक्रिया का तटस्थ दर्शक नहीं। वह उससे टकराती है, उसे झेलती है और उस पर प्रतिक्रिया भी करती है। इसीलिए महत्त्वाकांक्षाओं केखूनसे पैदा हुई कुंठा कहीं उसे तोड़ती है, तो कहीं दुस्साहसी भी बनाती है, कहीं झुकाती है, तो कहीं अनम्य भी बनाती है, कहीं सर झुका कर सब कुछ स्वीकार करने को विवश करती है, तो कहीं हर चीज के चरम नकार का बायस भी बन जाती है। 

 
मिटाने लगी है वो पाखंडी पहचान को 


सामाजिक श्रेणी और सांस्कृतिक चेतना के निचले पायदान पर पड़ी औरतों के अंदर उनकी कुंठा या तो स्थाई घुटन बन कर भीतर-ही-भीतर रिसती है या फिर दुनिया-धंधाके अहम सवालों से टकरा कर अपना निस्तार खोज लेती है। मगर वे औरतें, जो सामाजिक श्रेणी और सांस्कृतिक चेतना के लिहाज से अपेक्षाकृत ऊपर हैं, जिनकी संवेदना अधिक परिष्कृत है और जिनके संस्कार आधुनिक विचारों की रोशनी में घुले हुए हैं - उनके अंदर यह कुंठा एक चरम नकार का- एक विस्फोटक दुस्साहस का - रूप ले लेती हैं; और परिवार, समाज, आचरण और चरित्र के तमाम पाखंडपूर्ण मान-मूल्यों को तहस-नहस करके रख देती हैं....।

पैसे में डूब गई उनकी महत्त्वाकांक्षा 


बहरहाल, विस्फोटक चाहे जितना दिखे, बुर्जुआ अंध-पिशाचों की दुनिया में कुल मिला कर बड़ा निस्सहाय होता है यह नकार। क्योंकि, यह वह दुनिया है जहां विल्कप के नाम पर राज करता है - सर्वशक्तिमान पैसा! जिससे जीवन की तमाम आनंदमय रंगीनियों पर कब्जा किया जा सकता है....जिससे शोहरत और सामाजिक प्रतिष्ठा कब्जे में की जा सकती है....जिसकी खनक के सामने देह की वीणा और आत्मा के संगीत की कोई वकत नहीं होती....और जिसकी चमक के आगे हर मानवीय संबंध की आंच मंद पड़ जाती है। 

इस दुनिया से घिरी बागी औरत के लिए पैसा बन जाता है उसकी महत्त्वाकांक्षाओं का मूर्त रूप, जीवन के बसंत को हासिल करने का सबसे आसान जरिया, अपनी पहचान का सिक्का मनवा लेने का एक लुभावना माध्यम और पाप-पुण्य, नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय के परंपरागत पाखंड से परे- उसकी स्वतंत्रता का सर्वोच्च प्रतिमान। उसके अनुभव बताते हैं कि जिस पैसे आगे सारा संसार झुकता है, उसे पाने के लिए श्रम बल नहीं, बुद्धि का कौशल चाहिए। और एक तरफ पूंजी के मायालोक और दूसरी तरफ पुरुष प्रधान समाज की उपभोक्तावादी दृष्टि से आक्रांत बुद्धि, हर साधन-स्रोत से वंचित इस औरत को, सहज ही इस निष्कर्ष तक पहुंचा देती है कि इंसान की आदिम बर्बरता से लड़ने के लिए सौंदर्य और यौवन को भी  सट्टाबाजार में निवेश-पूंजी की तरह उछाला जा सकता है।



आपकी गलाजतों को बहाने का बन गई वो नाला 


समझ और एहसास के व्यवसायीकरण के इसी बिंदु से टैक्सी डांसर्स, फैन डांसर्स, कैबरे डांसर्स, ‘पेड कंपेनियंस’, मॉडल गर्ल्स, पिन-पिन गर्ल्स, कॉलगर्ल्स, सोसिएत गर्ल्स की एक लंबी-चौड़ी शृंखला बनती चली जाती है आजाद (?) औरतोंकी एक ऐसी श्रेणी-जिनके रूप की आंच में समाज की तमाम बंदिशें पिघल जाती हैं....जो नीति-नियमोंसे जकड़ी गृहणियों की तरह अनिवार्य श्रम-सेवाके बतौर किसी मर्द के कदमों में अपने रूप और यौवन की बलि नहीं चढ़ाती, बल्कि अपनी मर्जी के मालिकव्यापारियों की तरह, बिना किसी से बंधे हुए तन का सौदा करती हैं और उसका मनचाहा दाम वसूलती हैं....जिनके कदमों में- दिन के उजाले में नहीं, तो रात के अंधेरे में सही, यथार्थ की बस्ती में नहीं, तो कल्पना के वीराने में सही आदिम विकृतियों का मारा सारा-का-सारा पुरुष-समुदाय किसी-न-किसी रूप में सर झुकाता है, और शायद, किसी-न-किसी हद तक अपने को लुटा कर औरतों पर किए गए अपने अत्याचारों का बदला चुकाता है....।

जी हां, वह बदनाम है। आप उस पर उंगलियां उठाइए, उसकी निंदा-भर्त्सना कीजिए, उसका सामाजिक बहिष्कार कीजिए। मगर याद रखिए, वह आपके सड़ियल समाजतंत्र की उपज है। और बेशक उसकी जरूरत भी गर वह न हो, तो आपकी गलाजतों को बहाने का नाला कौन बने? अगर वह न हो तो अखबार-बिकाऊ स्कैंडल्स कैसे बने और आटे-दाल की स्वादहीन जिंदगी में आपको बारह मसाले की चाटकहां से मिले?.....बुर्जुआ समाजतंत्र के हर दांवपेच खोलने पर यह मालूम पड़ता है कि उसमें इन रूपजीवा लड़कियों की जरूरत कदम-कदम पर नजर आएगी। बुर्जुआ अपनी तमाम विकृत सामाजिक जरूरतों के लिए उनका भरपूर इस्तेमाल करता है, और एक दिन जब किसी स्कैंडल में, उनके इस्तेमाल का कच्चा चिट्ठा खुल जाता है या उनकी जवानी का जाम खाली हो जाता है- तो उन्हें चुपचाप गुमनामी, गरीबी और मनोदैहिक बीमारियों के गर्त में धकेल कर आगे बढ़ जाता है....।


स्वाती सिंह  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें