बचपन से हम सभी अपनी दादी-नानी से ढ़ेरों किस्से-कहानी सुनकर बड़े हुए है| वे कहानियां ही थी, जिन्होंने हमें कभी रात में चंदा मामा से मिलवाया तो कभी परियों के देश की सैर करवायी| अगर बात की जाए कहानी के इतिहास की तो हम यह कह सकते हैं कि शब्दों के साथ कहानियों के रचने का किस्सा शुरू हुआ| जैसे-जैसे शब्द रचते गए कहानियां बनती गयी|
प्रतिस्पर्धा के दौर में कोई
भी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा से अछूता नहीं रहा| फिर चाहे वो साहित्य जगत ही
क्यूँ न हो| दिन दोगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ती
प्रतिस्पर्धा के दायरे भी अब निरंतर बड़े होते जा रहे है| बात
की जाए हिंदी साहित्य की तो प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और
महादेवी वर्मा जैसे प्रसिद्ध-प्रतिष्ठित लेखकों के दौर में रचना का निर्माण उसके
सामाजिक सरोकार व देशकाल के आधार पर किया जाता था| लेकिन
वर्तमान समय में रचना के निर्माण का आधार सीधे तौर पर उसके बाज़ार से जुड़ा है|
आज ज्यादा पढ़े जाने वाले या यों कहें कि ज्यादा बिके जाने वाले लेखक
सफल माने जाते है| रचनायें अब पाठक की रूचि और बाज़ार के
अनुरूप गढ़ी जाने लगी है, न कि सामाजिक सरोकारों और देशकाल के
अनुरूप| शायद यही वजह है कि बेहतरीन हिंदी-साहित्य के लिए आज
भी हम प्रेमचंद व जयशंकर प्रसाद के दौर को याद करते है| क्योंकि
वे रचनायें हमें जिंदगी जीने का ढंग सिखाती थी, समाज से
रु-ब-रु करवाती थी और जीवन के तमाम रंगों को हमारे देशकाल के अनुरूप
ढालकर प्रस्तुत की जाती थी|
आजकल हर दूसरा इंसान कहता है
कि ‘लोगों में अब वैसी एकता और मेलजोल का भाव नहीं|’, ‘दुनिया
अब स्वार्थी हो चुकी है|’, ‘कोई किसी का सगा नहीं ही|’.......!
वाकई वर्तमान समय में यह बातें सच होती हुई, एक
बड़ी समस्या के तौर पर हमारे समाज में फ़ैल भी रही है| यदि हम
इस समस्या के कारण तलाशने की कोशिश करें तो हम यह पाते है कि बात चाहे टीवी जगत की
हो या साहित्य-जगत की, हर जगह पश्चिमी-संस्कृति का प्रभाव
तेज़ी से अपने पैर पसार रहा है, जिसमें व्यक्तिवादिता को
ज्यादा महत्वपूर्ण ढंग से दर्शाया जा रहा है| पर
व्यक्तिवादिता कभी-भी भारतीय संस्कृति का मूल नहीं रही है| कहते
हैं कि मीडिया (जिसमें टीवी जगत और साहित्य जगत दोनों सम्मिलित है) समाज का आईना
होती है और कई बार यह समाज को आईना दिखाने का भी काम करती है| इससे साफ़ है कि हम जैसा देखेंगे, जैसा पढ़ेंगे वैसा
व्यवहार करेंगे| भौगोलिकरण के दौर में संस्कृति के
आदान-प्रदान का ऐसा अँधा दौर चल पड़ा है जहां बिना देशकाल-वातावरण की पड़ताल किये हम
सभी उस संस्कृति को आत्मसात करते जा रहे है, जो सीधे तौर पर
हमारे विचार, व्यवहार और जीवनशैली को प्रभावित कर रही है|
इस दौर में जब युवा
रचनाकारों की पहली पसंद व्यक्ति केंद्रित कहानियां है, ऐसे में
भावना शर्मा द्वारा रचित उनका पहला कहानी-संग्रह ‘अतुल्य
रिश्ते’ हिंदी-साहित्य में एक नई सुबह के सूरज की लालिमा के
समान है, जिसके लिए लेखिका को साधुवाद|
अपनी-सी लगती है ‘अतुल्य
रिश्ते’ की कहानियां
समाज की तमाम विसंगतियों, मानव-जीवन
के रूप-रंगों और आधुनिकता की अंधी दौड़ में कुचलते रिश्तों के मर्म को लेखिका ने अपनी
कहानियों में बखूबी उकेरा है| बात की जाए, कहानियों के देशकाल और वातावरण की तो लेखिका ने घर-परिवार, आस-पड़ोस के रंग में रंगीं जीवनशैली वाले पात्रों को चुना है, जिससे उनकी रचनायें पाठक को सहज व स्वाभाविक होने के साथ-साथ अपनी-सी लगती
है|
लेखन में सधी हुई पकड़
लेखिका ने कहानियों का
तानाबाना बेहद सरल व प्रवाहमयी भाषा में बुना है जो कहानियों को एक जीवंत रूप
प्रदान करती है| युवा रचनाकारों की रचनाओं में भाषा को लेकर अक्सर यह समस्या देखी जा सकती
है कि जब वे सामाजिक परिवेश में मनोभावों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करने का
प्रयास करते है तो ज़्यादातर उनकी भाषा क्लिष्ट होती जाती है, जिससे उनकी रचना में जीवंतता की जगह नीरसता लेने लगती है| लेकिन भावना जी ने अपनी कहानियों में सामाजिक परिवेश और मनोभावों को सरल
भाषा में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, जो कहीं-न-कहीं
लेखन में उनकी सधी हुई पकड़ को दर्शाता है|
आकर्षक कहानी-शीर्षक
लेखन क्षेत्र की किसी भी
रचना में उसका शीर्षक बेहद महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि शीर्षक ही पाठक को उस
रचना की ओर आकर्षित करता है, जिससे वह उस रचना का पाठक बन
पाता है| कई बार सटीक शीर्षक के अभाव में अच्छी रचनाओं
को भी वह सफलता नहीं मिल पाती जिसकी वे सही हकदार होती है| शीर्षक
का रचना के लिए न्यायपूर्ण होना बेहद आवश्यक है| ऐसे में,
'अतुल्य रिश्ते' की लेखिका ने सभी कहानियों के
शीर्षक भी सजगता के साथ ऐसे चुने है जो एकबार में न केवल पाठक का ध्यान अपनी ओर
आकर्षित करते हैं, बल्कि उनके मन में कहानी को लेकर कौतुहल
भी उत्पन्न करते हैं|
‘कावेरी की पालकी’ के दो रंग
कहानी संग्रह में ‘कावेरी की
पालकी’ दूसरों के घरों में काम करने वाली एक ऐसी स्वावलंबी
युवती की कहानी है जो जीवन की तमाम कठिनाइयों को पार कर अपनी बेटी को उज्ज्वल
भविष्य देने के लिए अपने परिवार और दुनिया से लड़ने को तैयार हो जाती है और अपने
जीवन के अंत तक वो अपनी बेटी के बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत रहती है| वहीं दूसरी ओर, कावेरी के गुजर जाने के बाद उसके
मालिक-मालिकिन उसकी बेटी के लालन-पालन का जिम्मा खुद लेते है| यह कहानी जहां एक ओर पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला और बेटी के रूप में
जन्मी स्त्री की तमाम कठिनाइयों को उजागर करती है| वहीं
दूसरी ओर, कहानी में मालिक-नौकर से इतर इंसानियत के रिश्ते
को दर्शाया गया है, जहां कावेरी के मालिक-मालिकिन बिना किसी
भेदभाव के उसकी बेटी को अपनी बेटी की तरह स्वीकार करते हैं|
उपभोगतावादी संस्कृति को
बेपर्दा करती ‘स्वार्थ की दुनिया’
ऐसे ही लेखिका की एक अन्य
कहानी ‘स्वार्थ की दुनिया’ उपभोगतावादी चकाचौंध में फंसते
एक ऐसे इंसान की कहानी है, जो बाजारवाद और आधुनिकता की दौड़
में भागते हुए अपने परिवार, अपने माता-पिता को भूलता चला
जाता है| वहीं दूसरी ओर, कहानी में
चकाचौंध की गहरी शाम का रंग भी लेखिका ने संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है,
जब स्वार्थी दुनिया उस इंसान से अपना स्वार्थ निकालने के बाद किनारा
कर लेती है| लेकिन उसके परिवार वाले तब भी उसके साथ होते है|
इस कहानी के ज़रिए लेखिका ने स्वार्थ और निस्वार्थ के रिश्तों के बीच
के फ़र्क को सटीकता से पाठक तक पहुंचाने का प्रयास किया है, जिसमें
में वह काफी हद तक सफल भी हुई है|
‘अनकहा दर्द’
इस कहानी-संग्रह की मर्मस्पर्शी कहानी है| लेखिका
ने कहानी के मुख्य पात्र नट्टू के ज़रिए जहां एक ओर, माता-पिता
और अपनी बहन के प्रति उसके कर्तव्यपरायणता को दर्शाया है| वहीं
दूसरी ओर, अपने कलेजे के टुकड़े को खो देने के बाद माता-पिता
और बहन की तड़प को करीने से अभिव्यक्त किया है|
इसी क्रम में कहानी ‘गर्भ की आवाज़’
और ‘मुंबई लोकल ट्रेन’ जैसी
सभी कहानियां समाज की कुरीतियों और जीवन के मर्म को प्रस्तुत करती है| कहानी-संग्रह की सभी कहानियां संभावनाशील कथाकार की कोपलें खोलती कहानियां
है| हिंदी-साहित्य के मौजूदा दौर में ऐसी रचनायें साहित्य को
नई, जीवंत और सार्थक दिशा देने के लिए बेहद आवश्यक है,
जिसके लिए भावना शर्मा जैसी युवा-कथाकार का साहित्य जगत में आगमन एक
शुभसंकेत भी है|
स्वाती सिंह
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